कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
पिछले दिनों जर्मनी में एक कार कंपनी के संयत्र के रोबोट ने एक युवा मजदूर की हत्या कर दी. वह मजदूर कार के कलपुर्जे जोड़ने के उसके काम पर तैनात करने हेतु रोबोट के सुरक्षा घेरे में घुस गया था. रोबोट ने पहले उसे कस कर पकड़ा, फिर उठा कर ऐसा पटका कि मजदूर के सीने की सारी हड्डियां चकनाचूर हो गयीं.
अमेरिका में पिछले तीन दशक में रोबोटों से जुड़ी दुर्घटनाओं में तैंतीस से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हंै, लेकिन किसी रोबोट द्वारा इस तरह हत्या पर उतरने का यह पहला मामला है. अब तक हम जिन रोबोटों को फिल्मों, उपन्यासों अथवा विज्ञान कथाओं में किसी की जान लेते देख/पढ़ कर सिहरते रहे, अब वे हमारे समय के महाभयानक सच में बदल गये हैं.
इस घटना में हमारे लिए सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि हम इसके द्वारा बजायी गयी खतरे की घंटी से कोई सबक सीखेंगे या इसके लिए अगली पीढ़ी के उन रोबोटों के अस्तित्व में आने का इंतजार करेंगे, जो सुरक्षा घेरांे से बाहर-घूमने फिरने को भी आजाद होंगे और वर्तमान रोबोटों से ज्यादा कहर बरपा सकेंगे?
महात्मा गांधी तो अंधाधुंध मशीनीकरण को मानव सभ्यता के लिए अभिशाप बताते ही थे, चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग भी मशीनों के ऐसे सीमित उपयोग के ही पक्षधर थे, ताकि उनके मनुष्य पर हावी होने की नौबत न आये.
प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने तो साफ-साफ चेता रखा है कि रोबोट धरती से जीवन के खत्म होने की प्रक्रिया की शुरुआत होंगे, जिससे मानवजाति के मिट जाने का खतरा उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि मनुष्य का धीमा जैविक विकास रोबोटों के तेज अप्राकृतिक बुद्धि विकास के सामने ठहर नहीं सकेगा.
टेक्सला इलेक्ट्रॉनिक कार के जनक इलोन मस्क ने तो रोबोटों को दानव कह कर संबोधित किया और कहा है कि उनका निर्माण दानवों को निमंत्रण देने जैसा होगा. लेकिन वर्तमान दुनिया का राजनीति व पूंजी द्वारा नियंत्रित जो जटिल स्वरूप है, उसमें सिर्फ वैज्ञानिकों के ध्यान देने से कुछ होनेवाला नहीं, क्योंकि उनके हाथ में कोई निर्णायक शक्ति है ही नहीं और सत्ताएं इस ओर से पूरी तरह लापरवाह हैं.
जो लोग विज्ञान के अभिशापों के लिए वैज्ञानिकों को जिम्मेवार मानते हैं, उन्हें समझने की जरूरत है कि वैज्ञानिकों को तमाम कल्याणकारी व सृजनात्मक शोधों से विरत कर औजारों तक को हथियारों में बदलने के काम में इन सत्ताओं ने ही लगा रखा है.
कौन कह सकता है कि वैज्ञानिकों ने जिस अणु ऊर्जा की खोज की, उसे अणु या परमाणु बम में बदल कर दुनिया को बारूद के ढेर पर बिठाने के पीछे भी स्वार्थी सत्ताएं नहीं हैं? लेकिन हां, वैज्ञानिकों को इसका जवाब देना ही चाहिए कि क्या उनकी कोई सामाजिक, सांस्कृतिक या नैतिक जिम्मेवारी नहीं है?
वे सत्ताओं के भरोसे हैं, तो वे तो अभी इस आशंका से भी नहीं निबट पायी हैं कि कहीं परमाणु तकनीक किसी सिरफिरे आतंकी गुट के हाथ पड़ गयी तो क्या होगा? अगर आतंकी अपने खतरनाक मंसूबों के लिए रोबोटों का इस्तेमाल करने लगे, तो क्या वे हमें मानव बमों से कहीं ज्यादा बड़ी त्रसदियों में नहीं उलझायेंगे?