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राजनीतिक स्मृतियां दुरुस्त रखिए

।।रवीश कुमार।। (सीनियर एक्जिक्यूटिव एडिटर, एनडीटीवी) राजनीति कमजोर स्मृतियों का खूब लाभ उठाती है. इन दिनों अध्यादेश की राजनीति चरम पर है. ऐसा ही साल 2002 में भी था. सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया था कि चुनाव लड़ने से पहले उम्मीदवार को आपराधिक पृष्ठभूमि, वित्तीय देनदारी और शैक्षणिक योग्यता का ब्योरा देना होगा. कांग्रेस, […]

।।रवीश कुमार।।

(सीनियर एक्जिक्यूटिव एडिटर, एनडीटीवी)

राजनीति कमजोर स्मृतियों का खूब लाभ उठाती है. इन दिनों अध्यादेश की राजनीति चरम पर है. ऐसा ही साल 2002 में भी था. सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया था कि चुनाव लड़ने से पहले उम्मीदवार को आपराधिक पृष्ठभूमि, वित्तीय देनदारी और शैक्षणिक योग्यता का ब्योरा देना होगा. कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने इसका विरोध किया था और एनडीए सरकार एक अध्यादेश ले आयी. तब के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इस अध्यादेश को लौटा दिया था. इस पर उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनानेवाले मुलायम सिंह आग उगलने लगे थे. बाद में एनडीए सरकार ने उस अध्यादेश को जस का तस राष्ट्रपति के पास भेज दिया, लिहाजा उन्हें दस्तखत करने पड़े. राष्ट्रपति की आपत्ति यह थी कि अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के अनुरूप नहीं है. सरकार के अध्यादेश में कहा गया था कि सिर्फ चुनाव जीतनेवाला आपराधिक मामलों की जानकारी देगा. शैक्षणिक योग्यता की तो बात ही नहीं की गयी थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था.

अदालत ने क्या कहा था, यही न कि उम्मीदवार अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों की जानकारी दें. जब राजनीतिक दल इतनी सी बात के खिलाफ हो सकते हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य कि वे इस बात के खिलाफ न होते कि लोअर कोर्ट में सजा मिलने पर सदस्यता छोड़नी होगी. इससे पहले राजनीतिक दलों ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव कर यह सुविधा हासिल कर ली थी कि अपील दायर करने की स्थिति में सदस्यता रद्द नहीं होगी. सुप्रीम कोर्ट ने बीते दस जुलाई को अपने आदेश में कहा है कि कानून में यह प्रावधान संविधान के खिलाफ है. कानून चुने हुए प्रतिनिधि और उम्मीदवार में अंतर नहीं कर सकता. आप जानते हैं कि अगर उम्मीदवार सजायाफ्ता है तो चुनाव नहीं लड़ सकता; फिर चुने जाने पर सजा होगी तो वह सदस्य कैसे बना रह सकता है?

इस बार भी जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो बीजू जनता दल को छोड़ कर सबने इस आदेश का विरोध किया. बीजेपी ने तो पहली ही प्रतिक्रिया में कहा कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे. सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलायी. उस बैठक का उद्देश्य क्या था? यही न कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोकना है. यानी मई, 2002 को अगस्त, 2013 में दोहराया जा रहा था. बीजेपी के सदस्य सुझाव भी दे रहे थे कि अदालत के आदेश को पलटनेवाले बिल में क्या-क्या होना चाहिए. जब बिल राज्यसभा में पहुंचा, तो बीजेपी ने स्टैंडिंग कमेटी में भेजने का सुझाव दे दिया. सर्वदलीय बैठक में अध्यादेश लाने पर विचार या सहमति हुई थी या नहीं, अभी इसकी पुष्ट जानकारी नहीं है. बीजेपी के साथ कांग्रेस भी तैयार हो गयी कि बिल लाया जायेगा. यहां तक दोनों बराबर हैं. लाइन बदलने की होड़ शुरू हुई अध्यादेश के विरोध से. पहले बीजेपी ने किया, क्योंकि उसे लगा कि यह सब लालू प्रसाद को बचाने के लिए हो रहा है. फिर राहुल गांधी ने जो कुछ किया, वह आपके सामने है.

मेरा सरोकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर है. क्या इस वक्त जो राजनीति हो रही है वह उसके आदेश को लेकर हो रही है या इसे लेकर कि किसने अपनी लाइन पहले बदली और किसने बाद में बदलते हुए शिष्टाचार की सीमा लांघ दी? हालांकि यह सवाल भी अहम है, लेकिन राजनीतिक दल अपनी नैतिकता का प्रदर्शन किस आधार पर कर रहे हैं? क्या ये दल बता रहे हैं कि हम अब बदल गये हैं? हम अब आरोपी नेताओं को टिकट नहीं देंगे? ऐसा कुछ सुना क्या आपने? नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में एक ऐसे मंत्री भी हैं, जिन्हें गुजरात की एक अदालत ने तीन साल की सजा सुनायी है. उनकी अर्जी ऊपरी अदालतों में लंबित है, पर वे मंत्री हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के मुताबिक उन्हें तीन महीने पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था. यह और बात है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पहले दोषी पाये गये सांसदों या विधायकों के लिए नहीं है. इस आदेश के बाद जो दोषी पाया जायेगा उसे अपील का अधिकार तो है, मगर अपील के नाम पर सांसद या विधायक बने रहने की छूट नहीं है.

क्या कांग्रेस और बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का विरोध नहीं किया कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के तहत आते हैं और उन्हें मांगी गयी जानकारी देनी चाहिए. अगर राजनीतिक दल पारदर्शिता के हिमायती हैं, तो विरोध क्यों किया? आप जानते हैं कि इन दोनों की मिलीभगत से आरटीआइ के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का बिल लाया गया. अब दागियों को बचानेवाले अध्यादेश को राहुल गांधी ने बकवास तो कह दिया, मगर उनकी पार्टी या सरकार ने अब तक यह नहीं बताया है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन होना चाहिए. जो सजा पायेगा वह सदस्य नहीं रहेगा. जिस जनभावना के दबाव में बीजेपी और कांग्रेस के लाइन बदलने की बात कही जा रही है, वह क्या है? क्या वह सिर्फ अध्यादेश के खिलाफ है या अध्यादेश में जो बातें हैं उसके भी खिलाफ है? राजनीतिक दल जानते हैं कि राजनीति अपनी नैतिकता से नहीं चलती. कानून की नैतिकता कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती बन सकती है.

तो हमारा मूल सवाल यही होना चाहिए कि आप सजायाफ्ता सांसदों या विधायकों की सदस्यता जाने के पक्ष में हैं या विरोध में? जब आप सीधे-सीधे यह पूछेंगे, तभी सही जवाब मिलेगा. प्रधानमंत्री पद की गरिमा और इस्तीफा का मामला अहम होते हुए भी राजनीतिक दावंपेच से ज्यादा कुछ नहीं है. प्रधानमंत्री के सम्मान की चिंता न राहुल गांधी ने की है, न ही बीजेपी ने. मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री से लेकर न जाने क्या-क्या कहा गया है. तब भी कहा गया जब भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे थे और जब लगने लगे तब तो इसकी तीव्रता बढ़ती ही चली गयी. यह स्वाभाविक भी थी. लेकिन इस हंगामे के बहाने कांग्रेस और बीजेपी मूल सवाल को टाल रहे हैं. घोटालों के कारण पार्टी से निकाले गये येदियुरप्पा नरेंद्र मोदी के हक में प्रस्ताव पारित कर रहे हैं और बीजेपी चुप रह जाती है. यह नहीं कहती कि आप दूर रहें. इसी तरह जेल से निकले जगन रेड्डी को लुभाने के लिए कांग्रेस तत्पर नजर आती है.

इसलिए राजनीतिक स्मृतियां जब तक दुरुस्त नहीं रहेंगी और मुद्दे को लेकर सवाल अपनी जगह टिके नहीं रहेंगे, देश की राजनीति नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी या कांग्रेस बनाम बीजेपी के गलियारे में ही भटकती रहेगी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जो सवाल उठा है, वह सिर्फ कांग्रेस या बीजेपी तक सीमित नहीं है. उसका संबंध हमारी राजनीति के बेहतर और ईमानदार होने से है. क्या आपने सुना किसी को इस मुद्दे पर बोलते हुए!

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