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प्रमुख संस्थाओं का भगवाकरण

प्रो योगेंद्र यादव स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन से जुड़े हैं क्या कोई सरकार अपनी विचारधारा सरकारी संस्थाओं पर लाद सकती है. पिछले सालभर से शैक्षणिक संस्थाओं के भगवाकरण का विवाद चल रहा है. जगह-जगह विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में संकीर्ण हिंदुत्ववादी विचारधारा को लादने की कोशिश फूहड़ता से होती है और […]

प्रो योगेंद्र यादव
स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन से जुड़े हैं
क्या कोई सरकार अपनी विचारधारा सरकारी संस्थाओं पर लाद सकती है. पिछले सालभर से शैक्षणिक संस्थाओं के भगवाकरण का विवाद चल रहा है. जगह-जगह विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में संकीर्ण हिंदुत्ववादी विचारधारा को लादने की कोशिश फूहड़ता से होती है और इसलिए बेअसर रहती है. संस्थाओं की प्रशासनिक स्वायत्तता में दखलअंदाजी तो हर रोज का मामला हो गया है.
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआइआइ) पुणो के परिसर में एक विशाल वृक्ष है. लोग उसे कहते हैं विजडम ट्री, यानी बोधि वृक्ष. एक जमाने में भारतीय सिनेमा के ध्रुव तारे जैसे ऋत्विक घटक इस पेड़ के नीचे विद्यार्थियों को पढ़ाया करते थे. जाहिर है बोधि वृक्ष के नीचे बैठ कर मुङो भी कुछ ज्ञान मिलना ही था. सच्चा ज्ञानी वही है, जो जानता हो कि वह क्या नहीं जानता, उसी तरह एक अच्छा राजनेता वही है, जो जानता हो कि राजनीतिक सत्ता को कब और कहां दखल नहीं देना चाहिए.
इसी मर्यादा के उल्लंघन का मामला मुङो ले आया. वहां के विद्यार्थियों ने विजडम ट्री के तले चल रहे अपने धरने में शामिल होने के लिए बुलाया था. मुद्दा है इस संस्थान के निदेशक मंडल के अध्यक्ष के रूप में जितेंद्र चौहान की नियुक्ति. एफटीआइआइ के विद्यार्थी इस नियुक्ति के विरुद्ध हड़ताल पर हैं. मैं वहां उनकी बात सुनने और अपना समर्थन जताने गया था.
अगले दिन मुंबई के प्रसिद्ध पृथ्वी थियेटर जाने का मौका मिला. यहां फिल्मी दुनिया के छोटे-बड़े सब चेहरों का जमावड़ा होता है. वहां युवा पीढ़ी के कलाकारों से बात करके समझ आया कि यह रोष केवल पुणो तक सीमित नहीं है, मुंबई का फिल्म जगत भी इस नियुक्ति से क्षुब्ध है. हर कोई कह रहा था कि इतने बड़े ओहदे पर भाजपा के एक नेता को बैठाना इस संस्था का अपमान है.
फिल्म जगत में जितेंद्र चौहान को कुछ चालू टीवी सीरियल में कुछ छिटपुट रोल करने के लिए जाना जाता रहा है. फिल्म की विधा या कला में किसी भी तरह के योगदान का आरोप उन पर कोई नहीं लगा पा रहा है. फिल्म जगत मायूस है कि जिस कुर्सी पर कभी गिरीश कर्नाड और अडूर गोपालकृष्णन सरीखे फिल्मकार बैठे थे, उस पर चौहान के बैठने से कुर्सी तो छोटी होगी ही, इस संस्थान की भी अवमानना होगी.
पहली नजर में यह मामला एक व्यक्ति और एक संस्था का लग सकता है. लेकिन दरअसल, यह कोई पहला किस्सा नहीं है.इससे पहले सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की नियुक्ति भी विवादास्पद रही है. चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के अध्यक्ष के रूप में ‘शक्तिमान’ से जुड़े मुकेश खन्ना की नियुक्ति हो चुकी है. भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के अध्यक्ष के रूप में ऐसे सज्जन की नियुक्ति की गयी है, जिन्हें कोई भी गंभीर व्यक्ति इतिहासकार मानने को तैयार नहीं है. हाल ही में राष्ट्रीय संग्रहालय के निदेशक को हटा दिया गया था. कुछ महीने पहले एनसीइआरटी की निदेशिका प्रोफेसर प्रवीण सिन्केलयर को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था.
इस तरह के विवाद मोदी सरकार आने के बाद काफी गहरे हुए हैं. लेकिन दूसरी सरकारें भी दूध की धुली नहीं रही हैं. जब कांग्रेस का राज था, तब आइआइटी और आइआइएम में सरकारी दखलंदाजी का मामला उठा था. यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन और एनसीइआरटी में कांग्रेस सरकार की दखलअंदाजी का मैं खुद गवाह भी था और शिकार भी. अन्य संस्थाओं और अन्य पार्टियों का जिक्र इसलिए नहीं होता कि उनमें सरकारी दखलअंदाजी तो अब शाश्वत नियम बन चुकी है. राज्य सरकारों के तहत काम करनेवाले विश्वविद्यालय में उप कुलपति की नियुक्ति मजाक बन चुकी है.
ये सब संस्थाएं सरकारी विभाग की तरह काम करती हैं. गौरतलब है कि इस मामले में वामपंथी सरकारें भी कोई अपवाद नहीं हैं. जब-जब वामपंथी सरकारी या बुद्धिजीवियों के हाथ सत्ता आयी, तब-तब उन्होंने भी स्वायत्तता को दरकिनार कर इन संस्थाओं का राजनीतिक इस्तेमाल किया.
पुणो के विद्यार्थियों का संघर्ष दो बुनियादी सवाल उठाता है. पहला सवाल गुणवत्ता का है, कि किसी भी उच्च शिक्षा संस्थान या कला-संस्कृति से जुड़े उपक्रम के शीर्ष पर बैठनेवाले लोगों की योग्यता क्या होनी चाहिए. जाहिर है, सबकी अपेक्षा यही रहती है कि ऐसे व्यक्ति अपनी विधा में ख्याति प्राप्त लोग हों, ताकि उस संस्था का मान बढ़ा सकें और उससे जुड़े सभी लोगों के लिए एक रोल मॉडल बन सकें. सवाल यह भी है कि कोई व्यक्ति योग्य है भी या नहीं-ख्याति प्राप्त है या नहीं, इसका फैसला कौन ले? आमतौर पर यह फैसला सरकार लेती है. सरकार से अपेक्षा है कि वह यह फैसला लेते वक्त उस क्षेत्र के विद्वानों और कलाकारों की राय का सम्मान करे. लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिपाटी खत्म होती जा रही है.
हर सरकार अपने नजदीकी लोगों को कुर्सियां बांटती है. इस मायने में कांग्रेस ज्यादा खुदकिस्मत रही है. क्योंकि उसे देश के गणमान्य बुद्धिजीवियों और कलाकारों के एक वर्ग का समर्थन हासिल रहा है. बेचारी भाजपा के साथ पहले या दूसरे दर्जे का भी बुद्धिजीवी या कलाकार जुड़ने से संकोच करता है. उसकी वैचारिक संकीर्णता और देश की सांस्कृतिक विविधता को चारदीवारी में बंद करने की प्रवृत्ति बुद्धिजीवी और कलाकारों को दूर ढकेलती है. इसलिए भाजपा जब सत्ता में आकर शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में नियुक्तियां करती है, तो उसे अकसर बहुत हल्के-फुल्के नामों से काम चलाना पड़ता है. कांग्रेस के राज में भी नियुक्तियों पर विवाद होता रहा है. लेकिन भाजपा की नियुक्तियां अकसर मजाक बन जाती हैं. एफटीआइआइ के अध्यक्ष की नियुक्ति भी इसी का एक नमूना है.
यहां दूसरा सवाल संस्थाओं की राजनीतिक और प्रशासनिक स्वायत्तता का है. क्या कोई सरकार अपनी विचाधारा सरकारी संस्थाओं पर लाद सकती है. पिछले सालभर से शैक्षणिक संस्थाओं के भगवाकरण का विवाद चल रहा है. जगह-जगह विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में संकीर्ण हिंदुत्ववादी विचारधारा को लादने की कोशिश फूहड़ता से होती है और इसलिए बेअसर रहती है.
लेकिन कांग्रेस और वामपंथियों के राज में ज्यादा सफाई से वामपंथी विचारों को लादने की शिकायत को नजरअंदाज नहीं की जा सकती. संस्थाओं की प्रशासनिक स्वायत्तता में दखलंदाजी तो हर रोज का मामला है.
दरअसल, इसे यूं कहना चाहिए कि इन संस्थाओं को चलानेवाली तो सरकार है, इनमें कभी-कभार शिक्षाविदों और संस्कृतिकर्मियों को दखल देने का मौका मिल जाता है. इन दोनों चुनौतियों का प्रतिकार जितना जरूरी है, उतना ही कठिन भी. हम सबकी आदतें बिगड़ चुकी हैं. सत्ताधीशों के मुंह खून लग चुका है. बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों के एक बड़े वर्ग में चाटुकारिता का संस्कार बन गया है. जो चाटुकार नहीं हैं, वे उदासीन हैं. ऐसा लगता है कि विचार और संस्कृति के द्वीप की स्वायत्तता के लिए लड़ना हम सब भूल गये हैं.
इसलिए फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणो के विद्यार्थियों का संघर्ष पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है. बोधि वृक्ष के नीचे खड़े होकर मैंने उन्हें यही आगाह किया कि उनकी लड़ाई सच्ची है, लेकिन लंबी और कठिन भी होगी. फिर भी रात को बोधि वृक्ष से लौटते हुए उनके नारों की गूंज के बीच ऐसा महसूस हुआ कि मेरी आयु दस साल घट गयी है.

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