महिलाएं अपने अंदर दुखों का सागर धारण किये रहती हैं, मगर चेहरे पर सिकन तक नहीं आने देती. अलस्सुबह से देर रात तक उनके काम का सिलसिला जारी रहता है. उनका भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों परिवार के लिए समर्पित हो जाता है. शादी के पहले अपने माता-पिता के लिए, तो शादी के बाद ससुराल के लिए. सारा जीवन पति, सास, ससुर, संतति और ससुराल से जुड़े अन्य परिजनों की सेवा में न्योछावर हो जाता है. लेकिन इतना कुछ करने के बाद आखिर उन्हें हासिल ही क्या होता है?
ढंग से परिजनों का साथ भी नहीं मिलता. इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में उनका शरीर सिर्फ और सिर्फ मशीन बन कर रह जाता है. फिर भी परिवार के सदस्यों को कोई फिक्र ही नहीं! कितना भी काम कीजिए, किसी को संतुष्टि ही नहीं होती! घरेलू महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के आरोप भी लगाये जाते हैं, फिर भी वे कुछ नहीं बोलतीं. सब कुछ इस आशा में सहन कर लेती हैं कि कोई तो हमें समङोगा.
मैं एक कॉलेज की छात्र हूं. पटना पढ़ने के लिए आयी हूं. लेकिन घरेलू समस्याओं से पढ़ाई बाधित हो रही है. महिला सशक्तीकरण और उनके अधिकारों की बात करनेवाले अपने घर में महिलाओं की स्थिति नहीं देखते. यदि हर घर में महिलाओं को उचित सम्मान, भरोसा और सहयोग दिये जाएं, तो मेरे ख्याल से महिलाओं के नाम पर इतने आंदोलन चलाने की जरूरत ही न पड़े. हर महिला चाहती है, उसका समय घरवालों की सेवा में बीते. लेकिन मानिसक शांति भी तो मिलनी चाहिए? घरेलू कामों में पुरुषों की भागीदारी न के बराबर होती है. हमें समाज को बदलने के लिए यथासंभव अपनी सोच और काम के र्ढे को बदलना होगा. तभी देश-समाज का कल्याण संभव है.
प्रीति सिन्हा, देवघर