।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
अर्थशास्त्री
टूजी स्पेक्ट्रम मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए भ्रष्टाचार नियंत्रण के सार्थक प्रयास किये हैं. जनता ने कोर्ट की इस सक्रियता को सराहा है. आम आदमी समझ रहा है कि भ्रष्ट नेताओं पर नकेल कसने के लिए कोर्ट ही कारगर हो सकता है.
सुप्रीम कोर्ट की इस सक्रियता की जड़ें सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति स्वयं किये जाने की प्रक्रिया में है. पूर्व में सरकार द्वारा हाइकोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती थी, लेकिन इस प्रक्रिया का सरकार ने दुरुपयोग किया. जैसे इंदिरा गांधी ने अपने पसंदीदा व्यक्ति को चीफ जस्टिस नियुक्त किया था.
सरकार की पसंद से नियुक्त किये गये व्यक्ति के द्वारा सरकार के विरुद्घ कदम उठाना कठिन है. इसलिए नियुक्ति की यह प्रक्रिया असंतोषजनक थी.
इस समस्या के समाधान के लिए 90 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति न्यायपालिका द्वारा स्वयं की जायेगी. यह व्यवस्था वर्तमान में भी लागू है. हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के नेतृत्व में वरिष्ठतम जजों के कॉलेजियम द्वारा नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति सरकार को भेजी जाती है.
सरकार चाहे तो इन संस्तुतियों पर प्रश्न उठा सकती है, परंतु सामान्य रूप से इनको स्वीकार कर लिया जाता है. इस प्रकार हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में सरकारी दखल नाम मात्र की रह गयी है.
इस प्रक्रिया में वर्तमान जजों के द्वारा भविष्य के जजों को नियुक्त किया जा रहा है. इसका सबसे बड़ा लाभ है कि न्यायपालिका पर सरकार की छाया लगभग शून्यप्राय रह गयी है. पिछले समय में देखी गयी सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता इसी कारण संभव हुई है.
लेकिन वर्तमान प्रक्रिया में कुछ दूसरी समस्याएं सामने आ रही हैं. जजों द्वारा अपने नजदीकियों को जज नियुक्त किया जा रहा है. इन्हें प्रचलन में ‘अंकल जज’ के नाम से जाना जाता है. अकुशल व्यक्तियों को भी जज बनाये जाने के आरोप लग रहे हैं.
जजों द्वारा पर्याप्त संख्या में नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति के अभाव में जजों की संख्या न्यून बनी हुई है और मामलों की सुनवाई नहीं हो पा रही है. इन समस्याओं को देखते हुए लगता है कि हम बड़े कुएं से निकल कर छोटी खाई में आ गिरे हैं. सरकारी दखल से हमने मुक्ति पायी, लेकिन जजों द्वारा न्यायपालिका को अपनी स्वार्थसिद्घी का साधन बना लिया गया है.
इस समस्या से निबटने के लिए विश्व के तमाम देशों में कॉलेजियम की व्यवस्था की जा रही है. न्यायपालिका, सरकार और स्वतंत्र नागरिकों के कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति एवं उन पर निगरानी रखी जा रही है. ऐसे कॉलेजियम बनाने के लिए सरकार ने इन जजों की नियुक्ति के लिए नये कानून को राज्यसभा में दाखिल किया है. यह व्यवस्था तुलना में अच्छी है, परंतु अपर्याप्त है.
मुख्य समस्या है कि सरकार का हस्तक्षेप बना रहता है. कॉलेजियम के सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है. अत: कॉलेजियम में नेताओं का वर्चस्व बना रहता है. वे सरकार के लिए अनुकूल व्यक्तियों को नियुक्त कर सकते हैं. देश में चीफ विजिलेंस कमिश्नर आदि कुछ संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिए ऐसे ही कॉलेजियम की व्यवस्था है. कॉलेजियम में प्रधानमंत्री के साथ–साथ विपक्ष के नेता रहते हैं, परंतु समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है.
सरकार के द्वारा विपक्ष के नेता के सुझाव को नजरअंदाज किया जा सकता है. सीवीसी के पद पर पीजे थॉमस को सरकार ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्ति के बावजूद नियुक्त कर दिया था. इसके अतिरिक्त सत्तारूढ़ एवं विपक्षी पार्टियों में भी एका हो सकती है. ऐसे में हमें नये सिरे से विचार करना चाहिए, क्योंकि अब तक लागू की गयी दोनों प्रक्रिया संतोषप्रद नहीं हैं.
सरकार द्वारा नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वतंत्रता जाती है. न्यायपालिका द्वारा स्वयं नियुक्ति में न्यायपालिका की जवाबदेही नहीं रहती है. अत: हमें तीसरी प्रक्रिया अपनानी होगी, जिसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित की जाये.
न्यायपालिका की अंतिम जवाबदेही जनता के प्रति है. प्रश्न है कि जनता का प्रतिनिधित्व कौन करे? नेताओं को जनता अपना प्रतिनिधि नहीं मानती है.
अत: ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि नेताओं को छोड़ कर जनता के दूसरे प्रतिनिधियों पर न्यायपालिका के प्रबंधन की जिम्मेवारी दी जाये. ऐसे तमाम जनप्रतिनिधि उपलब्ध हैं. जैसे बार काउंसिल, मेडिकल काउंसिल एवं इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के अध्यक्ष, सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष, वरिष्ठतम अजरुन पुरस्कार विजेता, शंकराचार्य, सेवानिवृत्त सेना के कमांडर आदि.
इनके कॉलेजियम को जजों की नियुक्ति और निष्कासन का अधिकार दे देना चाहिए. ऐसा करने से न्यायपालिका में सरकारी दखल नहीं होगा और न्यायपालिका भ्रष्टाचार में भी लिप्त नहीं रह सकेगी. इस कॉलेजियम को भ्रष्ट व अकुशल जजों को बर्खास्त करने का अधिकार भी देना चाहिए.
कहा जा सकता है कि यह कॉलेजियम भी भ्रष्ट हो सकता है. परंतु मेरी समझ में यह कॉलेजियम सरकार तथा न्यायपालिका के कॉलेजियम से बेहतर होगा, कारण कि इसके सदस्य दूसरी स्वतंत्र प्रक्रिया से नामित होंगे. वर्तमान में आम आदमी की प्रमुख शिकायत है कि वकील द्वारा बार–बार समय ले लिया जाता है.
बारंबार तारीख लगने से वकील फीस अधिक वसूलते हैं. जजों द्वारा वकीलों के ऐसा करने पर रोक नहीं लगायी जाती है, क्योंकि जिला जज पर निगरानी रखने का काम हाइकोर्ट का है. जब हाइकोर्ट में भी कुछ जज भ्रष्ट अथवा अकुशल होते हैं, तो उनसे निचली न्यायपालिका पर नियंत्रण करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? यदि हाइकोर्ट में स्वतंत्र और कुशल व्यक्तियों की नियुक्ति हो तो इनके द्वारा जिला जजों पर नियंत्रण किया जा सकता है.
शिकायत है कि जजों की गुणवत्ता में ह्रास हो रहा है. यहां भी समस्या नियुक्ति से शुरू होती है. भ्रष्ट या अकुशल जजों द्वारा अपने सरीखे लोगों को जज बनाने की संस्तुति दी जा रही है. समाधान है कि जज के रूप में ईमानदार लोगों की नियुक्ति की जाये. इनकी ईमानदारी की जांच न तो जजों द्वारा की जानी चाहिए न ही सरकार द्वारा.
जजों की जवाबदेही नहीं है, इसलिए इन्हें नियुक्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए. सरकार पर नियंत्रण करना है, इसलिए सरकार को नियुक्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए. तीसरी प्रक्रिया बनानी चाहिए जो कि न्यायपालिका और सरकार से स्वतंत्र हो और पारदर्शी हो. हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों का चरित्र सुधर जायेगा, तो निचली अदालतें स्वयं सुधर जायेंगी.