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मुजफ्फरनगर दंगे के आगे-पीछे

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।। वरिष्ठ पत्रकार दंगे हमेशा भय, अविश्वास, असंवाद और अफवाहों की कोख से जन्म लेते हैं और जन्मते ही मानव मूल्यों को मारने लग जाते हैं. अब वे इस मूल्यहीन राजनीति के पंखों पर बैठ कर हमारी गर्दन दबोच रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुए दंगे को पिछले […]

।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।

वरिष्ठ पत्रकार

दंगे हमेशा भय, अविश्वास, असंवाद और अफवाहों की कोख से जन्म लेते हैं और जन्मते ही मानव मूल्यों को मारने लग जाते हैं. अब वे इस मूल्यहीन राजनीति के पंखों पर बैठ कर हमारी गर्दन दबोच रहे हैं.

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुए दंगे को पिछले दिनों जम्मूकश्मीर के किश्तवाड़ में हुई हिंसा और आगामी लोकसभा चुनावों के सिलसिले में राजनीतिक दलों द्वारा देशभर में की जा रही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष जुगतों से जोड़ कर देखा जा रहा है, जो कुछ हद तक सही भी है.

डेढ़ साल पहले अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही प्रदेश में दंगों की जो बाढ़ आयी, वह अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही. पहले लगता था कि युवा अखिलेश जल्दी ही अनुभवहीनता से उबर कर सद्भावविरोधी शक्तियों पर नियंत्रण पा लेंगे, लेकिन अब यह उम्मीद धुंधली हो रही है. गृह मंत्रलय के आंकड़े कहते हैं कि डेढ़ सालों में प्रदेश में छोटेबड़े कुल 105 दंगे हुए. इनमें तकरीबन 55 लोग मारे गये. इनमें तेरह दंगे तो बीते अगस्त में ही हुए.

यहां सपा विरोधी दलों के इस सुर में सुर मिलाना गलत होगा कि विभिन्न मोर्चो पर विफल रही अखिलेश सरकार जानबूझकर ये दंगे होने दे रही है, ताकि आम चुनाव में मतदाता उसके और भाजपा के बीच सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत हो जायें.

माना कि गुजरात दंगों के बाद से कुछ लोगों का यह विश्वास मजबूत हो गया है कि किसी सरकार द्वारा बेहतर जनसेवा के माध्यम से जनविश्वास अजिर्त करने के मुकाबले दंगे करा कर अपने पक्ष में वोटों की भारी बारिश कराने का रास्ता अपनाने में ज्यादा सुभीता है. लेकिन सपा से बेहतर कोई नहीं जानता कि प्रदेश की जनता ने सांप्रदायिक उन्माद की राजनीति को कभी स्वीकार नहीं किया.

जाहिर है कि अखिलेश सरकार अपनी पीठ पर सैकड़ों दंगों का बोझ लाद कर चुनाव में नहीं जाना चाहेगी. फिर भी वह अबतक इस बोझ को झटक नहीं पायी है और दंगों की श्रृंखला की हर नयी कड़ी ने सिद्घ किया है कि पिछले दंगों से कोई सबक नहीं सीखा गया.

पिछले दशहरे पर एक लड़की से कथित छेड़छाड़ के बहाने फैजाबाद में दंगा हुआ तो अखिलेश ने आश्वस्त किया कि वह आखिरी होगा. लेकिन प्रशासनिक अकुशलता ने मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में वैसी ही छेड़छाड़ की घटना को समय रहते नियंत्रित करने के बजाय इतनी बड़ी हो जाने दिया कि दोनों समुदायों के कट्टरपंथी भोलेभाले लोगों को बहका कर एकदूसरे की जान का दुश्मन बना दें.

और यह भी साबित करने में लग जायें कि जहां जो अल्पसंख्यक या कमजोर है, वहां वह पुलिस या सुरक्षाबलों के भरोसे सुरक्षित नहीं रह सकता. उसे अपने पड़ोसी की सद्भावना अजिर्त करनी होगी, जो इस शर्त पर होगी कि वह अकड़ कर या सिर उठा कर चले.

अखिलेश की विफलता यह भी है कि वे प्रदेशवासियों को विश्वास नहीं दिला पा रहे हैं कि अब वे सिर्फ एमवाइ समीकरण के नहीं, सारे प्रदेशवासियों के मुख्यमंत्री हैं. एमवाइ का कुछ ज्यादा ही निर्भय हो जाना नागरिकों में भय अविश्वास बढ़ा कर नयी समस्याएं पैदा कर रहा है, जिसका उनके विरोधी भरपूर प्रयोग कर रहे हैं.

अखिलेश नौकरशाही के सांप्रदायिक चरित्र को भी नहीं समझ पाये हैं और उसे कर्तव्यपालन का कोई संदेश दे पाये हैं. मुजफ्फरनगर में तो मुख्य सचिव तक के निर्देशों का समय से पालन नहीं हुआ, क्योंकि अधिकारी जानते थे कि वास्तविक सत्ता केंद्र कहां है. इतनी डिमोरलाइज नौकरशाही इस बड़े प्रदेश के लोगों के जानमाल अमनचैन की सुरक्षा की गारंटी कैसे दे सकती है?

यकीनन, दंगों की सफलता में प्रशासन की आपराधिक काहिली का सबसे ज्यादा योगदान है. 30 अगस्त को मुजफ्फरनगर के मीनाक्षी चौक पर कट्टरपंथी मुसलमानों की पंचायत हुई. अगले दिन नगला मंदोड़ में हिंदू कट्टरपंथियों की 36 बिरादरियों की भाजपा प्रायोजित पंचायत हुई. पांच सितंबर को मुजफ्फरनगर बंद रहा और सात को नगला मंदोड़ में फिर 36 बिरादरियां एकत्र हुईं, जिसमें तकरीबन एक लाख सशस्त्र लोग शामिल थे.

जो प्रदेश सरकार अयोध्या में विहिप की परिक्रमा को लेकर जरूरत से ज्यादा सतर्क थी, उसने मीनाक्षी चौक और नगला मंदोड़ के घातक मंसूबेवाले जमावड़ों को शायद इसलिए नहीं रोका, क्योंकि इसमें कोई राजनीतिक लाभ नहीं था. इसी पंचायत से लौट रहे लोगों पर हमले के बाद हालात बेकाबू हुए. सारे जमावड़ों में नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिये. लेकिन शांति सद्भावकामियों के नेतृत्व को एक भी नेता आगे नहीं आया.

वरना वहां एक तीसरी पंचायत हो जाती और कट्टर ताकतें कामयाब नहीं होतीं. पर ऐसा कैसे होता?

दंगे हमेशा भय, अविश्वास, असंवाद अफवाहों की कोख से जन्म लेते हैं और जन्मते ही मानव मूल्यों को मारने लग जाते हैं. अब वे इस मूल्यहीन राजनीति के पंखों पर बैठ कर हमारी गर्दन दबोच रहे हैं. यकीन हो, तो दंगों पर उनकी प्रतिक्रियाएं देख लीजिए, जिनमें अपने स्वार्थ के प्रति सतर्कता ज्यादा है और निदरेषों को महफूज रखने की चिंता कम.

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