पिछले साल 16 दिसंबर को नयी दिल्ली में एक 23 वर्षीय छात्र के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के मामले में आरोपित नाबालिग को दोषी करार देते हुए तीन वर्ष कैद की सजा सुनायी गयी है. इतने संगीन अपराध के लिए इतनी छोटी सजा का आधार बना यह तथ्य कि अपराध को अंजाम देते वक्त आरोपित की उम्र 18 से कम थी. दोषी को ये तीन वर्ष बाल सुधार गृह में बिताने होंगे. इस फैसले से कई लोग असंतुष्ट हैं.
सवाल पूछा जा रहा है कि क्या ऐसे जघन्यतम अपराध में शामिल होनेवाले के साथ उम्र के आधार पर उदारता जायज है? क्या किसी नाबालिग की दरिंदगी, वयस्क की दरिंदगी से अलग होती है? या उसका अंजाम कम खतरनाक होता है? बाल कानून का आधार यह सिद्धांत है कि उम्र के कच्चेपन में अगर कोई किशोर- भटकाव या गलत संगति के कारण कोई अपराध करता है, तो उसे सजा देने के बजाय, सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए. इस तर्क से पूरी तरह इत्तेफाक रखते हुए भी यह सवाल पूछना जरूरी है कि क्या दुष्कर्म और हत्या जैसे संगीन अपराध का भागीदार होनेवाले किशोर के लिए भी कानून अपनी लीक पर ही चलेगा? या अपवाद परिस्थितियों में वह अतिसाधारण फैसला लेने का साहस दिखायेगा?
बाल सुधार गृहों का मकसद बाल अपराधियों में पुनर्वासित करना और उन्हें फिर से मुख्यधारा में शामिल होने लायक बनाना है. लेकिन, क्या कोई सरकार इस सुधार की गारंटी ले सकती है? अगर इस सवाल का जवाब ना या चुप्पी है, तो इस कानून पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है. आंकड़े बताते हैं कि बाल सुधार गृहों से निकलने के बाद भी औसतन 10 प्रतिशत से ज्यादा किशोर फिर से अपराधों में संलिप्त पाये जाते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के वर्ष 2011 के आंकड़ों के मुताबिक कुल बाल अपराधियों में से 64 प्रतिशत 16 से 18 वर्ष के आयुवर्ग के थे. ऐसे में समाज में आ रहे व्यापक बदलावों को ध्यान में रखते हुए बाल अपराधियों की अधिकतम उम्र सीमा पर पुनर्विचार करने की मांग जायज नजर आती है. हालांकि यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि बदलाव की कोई भी पहल भावावेश पर आधारित न होकर, व्यापक विचार-विमर्श और उसके दूरगामी प्रभावों को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए.