संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं का दल पता लगा रहा है कि सीरिया के मोदामियत अल-शाम में हुआ हमला ‘रासायनिक’ था, या ‘जैविक’. यह तंत्रिका को हानि पहुंचानेवाली ‘नर्व गैस’ भी हो सकती है. दल की जांच रिपोर्ट पर पूरी दुनिया की नजर है. हालांकि यह तय कर पाना कठिन है कि 21 अगस्त को रॉकेट के जरिये किये गये इस जघन्य हमले को किसने अंजाम दिया, जिसमें तकरीबन 1300 लोग मारे गये. ऐसे कांड करनेवाले विद्रोही भी हो सकते हैं, और उन्हें कुचलनेवाली असद सरकार के सैनिक भी.
लेकिन अमेरिका को हम शक के दायरे से बाहर क्यों रखें? उसकी तो बस एक ही रट है कि सीरिया ने ‘रेड लाइन’ पार कर लिया है, इसलिए उस पर हमला होना चाहिए. फ्रांस, ब्रिटेन, स्वीडन, तुर्की, इजराइल और अरब लीग के कुछ सदस्य भी अमेरिका की तरह ही सीरिया पर आक्रमण के लिए उतावले हैं. और इस बात पर चौंकिये नहीं कि अल-कायदा भी सीरिया में असद सरकार को मिट्टी में मिलाने के लिए अमेरिका के साथ खड़ा है. अल-कायदा सीरिया के जिहादी गुट ‘अल-नुसरा’ से बगलगीर है और दोनों ने अल्वी बहुल इलाकों में जैव-रासायनिक हमले करने की ठानी है. इस एलान का अर्थ यही होता है कि विद्रोहियों के पास भी जैव-रासायनिक अस्त्र हैं. अल्वी समुदाय के लोग इस ऐलान से दहशत में हैं. राष्ट्रपति बशर अल-असद शियाओं के अल्वी समुदाय से ही ताल्लुक रखते हैं, जो हजरत अली के अनुयायी बताये जाते हैं.
हालांकि राष्ट्रपति असद इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं. रूस, चीन और ईरान असद के साथ खड़े हैं. इस लड़ाई में यदि ‘अल-कायदा’ और ‘अल-नुसरा’ जैसे सुन्नी अतिवादी एक तरफ हैं, तो असद सरकार के समर्थन में शिया अतिवादी हिजबुल्ला हैं. हिजबुल्ला और ईरान के रॉयल गार्ड ने सीरिया के कई ठिकानों पर किलेबंदी कर रखी है. सीरिया में तीन और जैव-रासायनिक हमले अतीत में हुए थे, जिसकी जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र की 20 सदस्यीय टीम 18 अगस्त, 2013 को दमिश्क पहुंची थी. संयुक्त राष्ट्र की इस टीम की अगुआई प्रोफेसर आके सेलस्ट्रोम कर रहे हैं. छह माह पूर्व 19 मार्च, 2013 को खान अल-असल के ‘नाभिकीय-रासायनिक’ हमले में 26 लोग मारे गये थे, जिसमें 16 सैनिक थे. संयुक्त राष्ट्र की जांच टीम को खान अल-असल तक केंद्रित रहने को कहा गया था. राजधानी दमिश्क से मात्र आधे धंटे की दूरी पर मोदामियत अल-शाम है. वहां 21 अगस्त को जिस वक्त ‘जैविक-रासायनिक’ हमला हो रहा था, संयुक्त राष्ट्र की यह टीम राजधानी दमिश्क में मौजूद थी.
असद सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की टीम को मोदामियत अल-शाम में जाने की अनुमति पांच दिन बाद क्यों दी? अमेरिका ने इस सवाल को उठाते हुए असद सरकार की नीयत पर शक किया है. अमेरिका की हां में हां मिलानेवालों का कहना है कि पांच दिन में तो बहुत सारे साक्ष्य बदल जाते हैं. यदि यह सही है, फिर तो छह माह पहले खान अल-असल में हुए ऐसे ही हमले की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र टीम को नहीं आना चाहिए था. ‘खाता न बही, अमेरिका जो कहे सो सही’ की शैली में यहां सब कुछ चल रहा है. अमेरिका ने इसी तरह से इराक में जनसंहार के हथियार (विपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन) का गुब्बारा फुलाया था, पर यह हथियार आज तक नहीं मिला.
सीरिया अमेरिका की हिट लिस्ट में आज से नहीं, पिछले चार दशकों से है. 1971 में सीरिया ने अपने बंदरगाह शहर तारतुस में रूसी नौसैनिक अड्डा बनाने की अनुमति देकर अमेरिका की नींद उड़ा दी थी. भूमध्यसागर में रूस का यह अकेला नौसैनिक अड्डा है, जिससे बचने के लिए 2008 में अमेरिका ने पोलैंड समेत पूर्वी यूरोप में परमाणु प्रक्षेपास्त्र प्रतिरक्षा कवच बनाने की ठान ली थी. रूस, सीरिया को डेढ़ अरब डॉलर के हथियार 2010 तक दे चुका था. 2012 में भी रूस, सीरिया को चार अरब डॉलर के हथियार भेजने का समझौता कर चुका है. 4 फरवरी, 2012 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीरिया के खिलाफ प्रतिबंध प्रस्ताव चीन और रूस के वीटो के कारण पास नहीं हो सका. यह नोट करनेवाली बात है कि संयुक्त राष्ट्र में ‘वीटो’ के कारण जो प्रस्ताव गिरता है, वही प्रस्ताव 27 सदस्यों वाले यूरोपीय संघ में पास कराया जाता है. ईरान के साथ भी ऐसा ही हुआ था.
अमेरिकी मित्र मंडली उन देशों के पीछे भी पड़ी है, जो सीरिया से व्यापार कर रहे हैं. भारत उनमें से एक है. भारत पर दबाव है कि वह सीरिया में 115 अरब डॉलर के निवेश की योजना स्थगित कर दे. भारत-चीन साङो रूप से सीरिया में तेल की खोज, दोहन-प्रशोधन और उसकी मार्केटिंग में शामिल हैं. सीरिया में आधारभूत संरचना के क्षेत्र में दर्जनों भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं. भारत पर सबसे अधिक दबाव तेल व्यापार से पीछे हट जाने के लिए है. सवाल यह है कि क्या अमेरिका के कहने पर भारतीय कंपनी ओएनजीसी ‘विदेश’ सीरिया में अपना जमा-जमाया कारोबार छोड़ दे? यह किस तरह की चौधराहट है? पहले ईरान से तेल न लेने के लिए भारत पर दबाव बनाया गया, और अब सीरिया की बारी.
देखने में तो यही लगता है कि सीरिया में एक तानाशाह शासन है और उसका हटना जरूरी है. लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की ठेकेदारी अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्र देशों ने ही क्यों ले रखी है? अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी विक्टोरिया नूलैंड ने जून, 2011 में स्वीकारा था कि बहुत सारे सीरियाई नागरिक हमारे संपर्क में हैं, जो व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं. 18 मार्च, 2011 को जॉर्डन की सीमा से लगे दारा में जिस जनक्रांति की शुरुआत हुई थी, उसमें इजराइल समर्थक ‘सलाफी ग्रुप’ के लोग थे. इन्हें पैसा और हथियार सऊदी अरब से दिये गये थे. सीरिया का जिहादी गुट ‘अल नुसरा’ को लगातार घातक हथियारों से लैस किया गया. क्या इसमें अमेरिका और उसके मित्रों का हाथ नहीं है?
सीरिया के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में जो पहला प्रस्ताव आया था, उस समय भारत किसी पाले में नहीं था. 2012 में भारत ने दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के साथ एक कूटनीतिक मिशन दमिश्क भेज कर अच्छा ही किया था. इससे यह संदेश तो गया कि सीरिया समस्या के समाधान के लिए एक तीसरी ताकत सक्रिय है. दुखद यह है कि दोनों पक्ष उपद्रवग्रस्त इलाके के लिए बनाये गये अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का मर्दन कर रहे हैं. दुनिया का कोई भी ‘कन्वेंशन’ इसकी अनुमति नहीं देता कि जहां पर आंदोलन हो रहा हो, उसे दबाने या उकसाने के लिए हथियार और पैसे बांटे जाएं. क्या संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को नहीं लगता कि सीरिया में शांति मिशन भेजा जाना चाहिए?
पुष्परंजन
नयी दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
pushpr1@rediffmail.com