।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)
बिहार में मिड–डे मील से हुई 23 बच्चों की मौत के पहले मार्च में पानीपत में भी दो बच्चों की मौत हुई थी. दिसंबर, 2005 में बुलंदशहर में 8 ट्रक चावल सीज किये गये थे. मिड–डे मील के नाम पर निकाले गये चावल को बेचा जा रहा था. जेएनयू के निक रॉबिन्सन द्वारा मध्य प्रदेश में किये गये एक अध्ययन में इस स्कीम में भ्रष्टाचार को प्रमुख समस्या बताया गया है.
उधर, दिल्ली सरकार के मूल्यांकन में पाया गया है कि राज्य के चौथाई स्कूलों में 50 दिन से कम मील दी गयी, जबकि 200 दिन दिया जाना था. साफ है, इस स्कीम में भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है. अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि सरकारी कर्मियों द्वारा कितने धन का गबन हुआ, यह पता लगाना उतना ही कठिन है जितना यह पता लगाना कि मछली ने तालाब में कितना पानी पियौ. सरकार ने मिड–डे मील जैसी स्कीमों के जरिये इन भक्षकों को जनता के रक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया है.
अमेरिका में फूड स्टैंप स्कीम सफल है. गरीब परिवार इन स्टैंप से अपनी जरूरत का भोजन खरीद लेते हैं. पर भारत सरकार को पसंद नहीं कि मां–बाप अपनी समझ से बच्चे को टिफिन दें. मां–बाप की गरिमा को तोड़ने के लिए अधपके अध्ययन पेश किये जाते हैं. मसलन इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट अमदाबाद द्वारा तैयार एक पर्चे में कहा गया है कि फूड स्टैंप की तरह परिवार को वाउचर नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि इसे परिवार द्वारा ग्रे मार्केट में बेचा जा सकता है. पर हमारे विद्वान भूल जाते हैं कि स्कूल में मिड–डे मील देने से घर में जो बचत होती है उसका उपयोग भी मोबाइल फोन के लिए किया जा सकता है.
फूड वाउचर और मिड–डे मील के बीच एक अंतर दिखता है. वाउचर को बाजार में बेचा जा सकता है, जबकि मिड–डे मील को स्कूल से बाहर बेचा नहीं जा सकता. पर यहां प्रश्न मिड–डे मील को बेचने का नहीं है. प्रश्न मिड–डे मील मिलने से घर के बजट में जो बचत होती है, उसके उपयोग का है. मान लीजिए कि किसी बच्चे को स्कूल में मिड–डे मील मिलती है तो घर के बजट में 200 रुपये प्रतिमाह की बचत होती है, चूकि अब बच्चे को टिफिन नहीं देना है. इस रकम का उपयोग मोबाइल फोन खरीदने में किया जा सकता है. फूड वाउचर बाजार में बेचना होगा, जबकि बचत के दुरुपयोग के लिए बाजार जाना भी जरूरी नहीं है.
मेरा मानना है कि इस स्कीम का उद्देश्य गरीब को लंबे समय तक गरीब बनाये रखना है. सर्वविदित है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की क्वालिटी घटिया है. प्राइवेट टीचरों की तुलना में सरकारी टीचरों के वेतन करीब चार गुना है, पर रिजल्ट आधे हैं. इस खराब रिजल्ट का आंशिक कारण है कि गरीब परिवारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं. इन्हें घर में पढ़ाई का वातावरण नहीं मिलता है. पर दूसरा ज्यादा प्रभावी कारण है कि सरकारी टीचरों की पढ़ाने में रुचि नहीं होती है. उनकी कोई जवाबदेही नहीं है. उनका ध्यान गबन पर लगा रहता है. इससे मां–बाप बच्चों को पढ़ने के लिए यहां नहीं भेजना चाहते हैं.
हालांकि टीचरों का कहना है कि उन्हें जनगणना जैसे कई दूसरे सरकारी कार्यो में लगा दिया जाता है, जिससे पढ़ाई बाधित होती है. यह समस्या सही है. पर अतिरिक्त कार्यभार के साथ–साथ सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी अधिक होती है. टीचरों की क्षमता अच्छी होती है. लेकिन गिरते इनरोलमेंट के कारण सरकारी टीचरों की नौकरी खटाई में है. इस समस्या का हल खोजा गया है कि मिड–डे मील देकर बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला का लालच दो.
नतीजा है कि प्राइवेट स्कूल में जो बच्चे पास हो सकते थे, मिड–डे मील के लालच में सरकारी स्कूलों में फेल होकर आजीवन गरीब बने रहते हैं. बर्लिन स्थित यूरोपियन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी के एक मूल्यांकन में कहा गया है कि मिड–डे मील से इनरोलमेंट में वृद्धि होती है पर शिक्षा के स्तर में गिरावट के संकेत मिलते हैं. शिक्षकों और बच्चों का ध्यान पढ़ाई से हट कर भोजन की तरफ चला जाता है.
मिड–डे मील की समस्याओं का समाधान पेरेंट्स अथवा जनसहयोग से खोजा जा रहा है. कहा जा रहा है कि जनता दबाव बना कर सुनिश्चित कर सकती है सही क्वालिटी की मील दी जाये. सप्ताह में एक दिन पैरेंट्स को मील टेस्ट कराने का प्रावधान किया जाये. यह सुधार मेरी समझ से परे है.
यदि जनता इतनी जागरूक है तो उसे फूड वाउचर क्यों नहीं दे देते हैं? नगद संभालने में जनता को मूर्ख बताया जा रहा है और सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने में सक्षम बताया जा रहा है. इसलिए मेरा सुझाव है कि मिड–डे मील और सरकारी शिक्षा के खर्च को हर बच्चे में वाउचर के रूप में बांट देना चाहिए.