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सर्वागीण विकास की पहल जरूरी

* पीछे छूटते अल्पसंख्यक सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का कम प्रतिनिधित्व भारतीय लोकतंत्र के समावेशी चरित्र पर सवालिया निशान लगाता है. भारतीय संविधान में देश के हर नागरिक के साथ किया गया समानता का वादा अवसरों में सबकी न्यायोचित हिस्सेदारी के बिना अधूरा ही कहा जायेगा. संविधान के अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के मामले […]

* पीछे छूटते अल्पसंख्यक

सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का कम प्रतिनिधित्व भारतीय लोकतंत्र के समावेशी चरित्र पर सवालिया निशान लगाता है. भारतीय संविधान में देश के हर नागरिक के साथ किया गया समानता का वादा अवसरों में सबकी न्यायोचित हिस्सेदारी के बिना अधूरा ही कहा जायेगा.

संविधान के अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के मामले में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने की गारंटी दी गयी है. इसके बावजूद देश का अल्पसंख्यक समुदाय सरकारी नौकरियों में खुद को हाशिये पर पाता है. इस कटु सच्चई को जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट ने सामने लाया था. इस रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों की दशा सुधारने के लिए गंभीर पहल की जरूरत पर बल दिया गया था. लेकिन सच्चर समिति की सिफारिशों के सात साल बीत जाने के बाद भी स्थिति में सुधार के संकेत नहीं मिल रहे.

गुरुवार को लोकसभा में एक सवाल पर सरकार द्वारा दिये गये जवाब में यह चिंताजनक तथ्य सामने आया है कि केंद्र सरकार की नौकरियों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ने की जगह वर्ष 2011-12 में काफी कम हुआ है. वर्ष 2009-10 में विभिन्न केंद्रीय विभागों सेवाओं में हुई नयी नियुक्तियों में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी 7.28 प्रतिशत थी, जो 2010-11 में बढ़ कर 10.18 प्रतिशत हो गयी. लेकिन जैसे यह महज एक अपवाद हो, 2011-12 में यह आंकड़ा घट कर 6.24 फीसदी के चिंताजनक स्तर पर गया. देश में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी के हिसाब से यह काफी कम है.

सवाल है कि आखिर सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों की गिरती भागीदारी की वजह क्या है? क्या इसकी वजह सिर्फ सामाजिक पूर्वाग्रह है, या जैसा कि सरकार कह रही है कि इसका मुख्य कारण अल्पसंख्यकों के लिए विशेष कोटे का कानूनी पचड़े में पड़ जाना है? अपनी जगह पर ये तर्क अधूरे सच की ओर ही ले जाते लगते हैं. यह एक बड़ी चुनौती से आंखें चुराने का आसान रास्ता भी है.

सबसे बड़ा सवाल गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक अल्पसंख्यक समुदाय की पहुंच का है, जो अब तक एक स्वप्न सरीखा बना हुआ है. वास्तव में अल्पसंख्यकों की तरक्की का सवाल सिर्फ नौकरियों से जुड़ा होकर, उनको देश की मुख्यधारा में शामिल करने का है. इस दिशा में सरकारी कोशिशें राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में असफल होती रही हैं. यह वक्त है, जब देश के अल्पसंख्यकों के विकास के लिए एक समग्र नीति बनायी जाये, जिसका जोर अल्पसंख्यकों को महज वोट के तौर पर देखने की ओर होकर उनके सर्वागीण विकास पर हो.

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