विवेक शुक्ला
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा जरूर है, लेकिन इसके साथ ही हर क्षेत्र की अपनी भाषाएं भी हैं, जिन्हें बचा कर रखना बेहद जरूरी है. इस लिहाज से 21 फरवरी का दिन अपने आप में खासा महत्व रखता है.
हमारे देश में भाषा को लेकर कई आंदोलन चल चुके हैं. निर्विवाद रूप से भाषा बेहद भावनात्मक मुद्दा है, जिसे सरकार को बहुत सोच-समझ कर सुलझाना चाहिए. भाषा का संबंध जाति, धर्म या ओहदे से नहीं है. पूर्व में सियासी कारणों के चलते जब भी इस मसले के साथ खिलवाड़ हुआ, तो हालात बद से बदतर हो गये. खालिस्तान आंदोलन के मूल में भी कहीं न कहीं भाषा का सवाल था.
दरअसल, पंजाब के हिंदू संगठनों के आह्वान के चलते वहां के हिंदुओं ने 1951 तथा 1961 की जनगणना में अपनी मातृभाषा पंजाबी के स्थान पर हिंदी बतायी. जाहिर तौर पर बिल्कुल गलत था. इसके चलते पंजाब के हिंदुओं और सिखों के बीच दूरियां बढ़ीं, जिसकी परिणति पंजाब में 80-90 के दशक में चले खूनी खालिस्तान आंदोलन के दौरान देश ने देखी. दूसरी ओर असम में 80 के दशक में बांग्लादेशियों की प्रदेश में घुसपैठ के विरोध में चले लंबे आंदोलन के पीछे भी आंदोलनकारियों की एक चिंता यह थी कि उनके प्रदेश में बाहरी तत्व इतने बढ़ जायेंगे कि उनकी भाषा के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो जायेगा.
बांग्लादेश की शहीद मीनार भी उन मातृभाषा के चाहनेवालों की याद दिलाती है, जिन पर 21 फरवरी, 1952 को पाकिस्तान की पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलायी थीं, जिसमें ढाका विश्वविद्यालय के दर्जनों छात्र शहीद हुए थे. उसी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा, प्रेम और प्राणों की आहुति देने के जज्बे को आज 21 फरवरी को 62 साल पूरे हो रहे हैं. इस दिन को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में सारी दुनिया मनाती है.
दरअसल, बांग्ला बनाम उर्दू के बीच के संघर्ष का चरम था 21 फरवरी, 1952 का वह मनहूस दिन. ढाका विश्वविद्यालाय परिसर के ठीक बाहर बड़ी संख्या में छात्र प्रदर्शन करने के लिए एकत्र हुए थे. उसी दौरान न जाने क्यों, हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों ने उन निहत्थे छात्रों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं, जिसमें दर्जनों छात्रों की मौत हो गयी. इस नृशंस सामूहिक हत्याकांड से दुनिया सन्न रह गयी, पर पाकिस्तानी सरकार ने किसी तरह का अपराधबोध का प्रदर्शन नहीं किया. अपनी मातृभाषा को लेकर इस तरह के प्रेम और जज्बे की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है. बांग्लाभाषा के चाहनेवालों ने मारे गये छात्रों की स्मृति में घटनास्थल पर स्मारक बनाया, तो उसे ध्वस्त कर दिया गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के शासक पूर्वी पाकिस्तान से हर स्तर पर भेदभाव करने लगे. इस भेदभाव का चरम तब सामने आया, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने ढाका दौरे के दौरान बार-बार घोषणा की कि नये देश की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी. जिन्ना 19 मार्च,1948 को ढाका पहुंचे. जिन्ना ने 21 मार्च को ढाका में एक सार्वजिनक सभा को संबोधित किया. वहां पाक गवर्नर जनरल ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी. इस घोषणा के कारण जनता में निराशा और गुस्से की लहर दौड़ गयी. वे जिनकी मातृभाषा बांग्ला थी, वे ठगा सा महसूस करने लगे. जाहिर तौर पर उन्होंने पृथक मुसलिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का फैसला किया था, लेकिन वे अपनी बांग्ला संस्कृति और भाषा से दूर जाने के लिए भी किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे. महत्वपर्ण यह है कि जिन्ना की घोषणाओं का तीखा विरोध उनकी मौजदूगी में हुआ.
जिन्ना के ढाका से कराची के लिए रवाना होने के फौरन बाद से पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को थोपने की कथित कोशिशों के विरोध में प्रदर्शन होने लगे. आहत बंग्लाभाषियों को राहत देने के इरादे से एक प्रस्ताव यह आया कि वे चाहें, तो बांग्ला को अरबी लिपी में लिख सकते हैं. जैसा कि उम्मीद थी, स्वाभिमानी बांग्लाभाषियों ने वह प्रस्ताव खारिज कर दिया.
बांग्लाभाषियों के अपनी मातृभाषा से प्रेम और उसके लिए किसी भी कुर्बानी देने के जज्बे को सम्मान देते हुए संयुक्त राष्ट्र ने नवंबर, 1999 में दुनिया की उन भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए साल 2000 से प्रति वर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का निश्चय किया, जो कहीं न कहीं संकट में हैं. जाहिर है कि यह ढाका विवि के बाहर मारे गये छात्रों को विनम्र नमन है.
किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए अपनी मातृभाषा एक सशक्त पहचान की तरह होती है. इसको बचा कर रखना बेहद आवश्यक होता है. अगर हम भारत की बात करें, तो यहां हर कुछ कदम पर हमें बोलियां बदलती नजर आती हैं. हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा जरूर है, लेकिन इसके साथ ही हर क्षेत्र की अपनी भाषाएं भी हैं, जिन्हें बचा कर रखना बेहद जरूरी है. इस लिहाज से 21 फरवरी का दिन अपने आप में खासा महत्व रखता है. और यह भी याद दिलाता है कि किसी वर्ग या समूह पर किसी भाषा को थोपने के कितने भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं.