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कुछ ऐसे पुरस्कार भी होने चाहिए!

।। एमजे अकबर ।। (वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं) – यह हैरानी की बात है कि पत्रकारिता, जो हॉलीवुड से कम क्रिएटिव नहीं है, ने सबसे अच्छी न्यूज फैक्टरी, यानी अकसर बयान देकर चर्चित होनेवाले राजनेताओं के लिए अब तक किसी पुरस्कार का ईजाद नहीं किया है. इसमें प्रतिभागियों की संख्या सीमित रहे. बड़े दलों से दर्जन […]

।। एमजे अकबर ।।

(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)

– यह हैरानी की बात है कि पत्रकारिता, जो हॉलीवुड से कम क्रिएटिव नहीं है, ने सबसे अच्छी न्यूज फैक्टरी, यानी अकसर बयान देकर चर्चित होनेवाले राजनेताओं के लिए अब तक किसी पुरस्कार का ईजाद नहीं किया है. इसमें प्रतिभागियों की संख्या सीमित रहे. बड़े दलों से दर्जन भर, छोटे से दोतीन हो सकते हैं. अधिकतर आधिकारिक तौर पर मनोनीत होंगे. कुछ अदम्य भी होंगे.

उद्योगों को स्वयं सम्मान देने की इजाजत होनी चाहिए, खास कर तब जबकि कोई और सम्मानित करने को इच्छुक हो. आधुनिक अतिवाद की नींव 19 सदी के अंत में छोटे से हॉलीवुड में एक सनकी अरबपति ने संयम के विचार को आगे बढ़ाने के इरादे से रखी थी.

गौर करें कि उनके अच्छे इरादे ने हमें कहां पहुंचाया है. जब हॉलीवुड आगे बढ़ा और खुद को स्टार्स, सेक्स और शराब से सम्मानित किया, तो उसे अपनी कला को पहचान देने के लिए किसी प्रतीक की जरूरत महसूस हुई. जैसे ऑस्कर. स्थितियां नयी स्थितियों को जन्म देती है. आज सिनेमा के अलावा पुरस्कार के कई श्रेणी हो गये हैं.

यह हैरानी की बात है कि पत्रकारिता, जो हॉलीवुड से कम क्रिएटिव नहीं है, ने सबसे अच्छी न्यूज फैक्टरी, यानी अकसर बयान देकर चर्चित होनेवाले राजनेताओं के लिए अब तक किसी पुरस्कार का इजाद नहीं किया है. इसमें प्रतिभागियों की संख्या सीमित रहे. बड़े दलों से दर्जन भर, छोटे से दोतीन हो सकते हैं.

अधिकतर आधिकारिक तौर पर मनोनीत होंगे. कुछ अदम्य भी होंगे, जो अधिकार में फूलते हैं और जिनकी मान्यता सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से नजदीकी या पूर्व के कैरियर से मिली वंशानुगत प्रसिद्धि से सुनिश्चित होती है. अंगरेजी के जानकार पीजी वोडेहाउस की व्याख्या के मुताबिक पहले वाले संतुष्ट होते और बाद वाले असंतुष्ट़

हम इसकी शुरुआत केवल बाइट ऑफ इयरअवार्ड से कर सकते हैं. बाद में राज्यसभा सीट की तलाश कर रहे सबसे बुजुर्ग के बोल, हिंदी गंवई भाषा को समझने वाले का सबसे बेहतर अंगरेजी अनुवाद की श्रेणी बना सकते हैं. इसकी संभावना काफी अधिक है. भारतीय मतलब और अंगरेजी व्याकरण में सबसे अधिक भिन्नता, ट्विटर की सीमा द्वारा शब्दों की सबसे खराब व्याख्या, बयान के बाद सबसे तेज गिरनेवाला, अल्पसंख्यक वोट पाने के चक्कर में खुद गलती करने में आगे रहनेवाला या मौजूदा दुश्मन जो कल दोस्त बन सकता है, जैसों की सबसे क्रिएटिव गालीगलौज की श्रेणी भी है. इसके लिए स्पांसरों की भी कमी नहीं होगी, क्योंकि ऐसा समारोह काफी मनोरंजक होना तय है.

आलोचक इस बात को लेकर हैरान होंगे कि क्या कोई राजनेता ऐसा अवार्ड लेने आयेगा. थियेटर के अंदर और बाहर के दर्शक इस बात को लेकर अचंभित होंगे, यदि कोई पुरस्कार पानेवाला अपने शीर्ष नेता, पत्नी, पति, मातापिता, समर्थक को धन्यवाद दे. लेकिन आलोचक इसे लेकर गलत हैं. राजेनता उनसे कहीं अधिक चालाक होते हैं. वे जानते हैं कि 90 फीसदी टेलीविजन दर्शक केवल यह याद रखते है कि आपको पुरस्कार मिला, कि यह कि क्यों मिला.

राजनेता केवल एक तर्कसंगत शर्त यह रख सकते हैं कि पुरस्कार किसी प्रतिष्ठित जो अब भी प्रसिद्ध हो, जैसे फिल्म के हीरो जो अब भी बड़े रोल में सिनेमा के बड़े लोगों द्वारा चुने जाने के लिए बहस के केंद्र में होते हैं, के हाथों दिया जाये. अगर अमिताभ बच्चन उपलब्ध हों और कैटरीना कैफ को फुर्सत हो, तो कई दूसरे हैं.

पर आर्ट सिनेमा तक सिमटे लोगों से पुरस्कार हासिल करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. इससे भी खराब होगा कि राज बब्बर शत्रुघ्न सिन्हा को देख मुसकुराएं और अगले पुरस्कार के लिए सिन्हा बब्बर को मदद पहुंचाएं. ही कोई दिग्विजय सिंह और शकील अहमद के बीच आपसी सहमति से गड़े मुरदे उखाड़ने के प्रति ध्यान देगा.

आंख बंद करते ही मौखिक कुचक्र गढ़ने के लिए पुरस्कारों का पुस्कार के रूप में सबसे तेजी से हलवा पकाने का पुरस्कार भी होना चाहिए. यह आंतरिक व्यक्तिगत क्षमता का आकलन करने का टेस्ट होगा, कि आलस भरे दोपहर में शांति से तैयार किया गया भाषण. जज इसकी कीमत का आकलन हलवे के स्वाद से करेंगे, यह महत्वपूर्ण नहीं होगा कि स्वास्थ्यकारी है या नहीं. तात्कालिक समझ और पसंदीदा रसोइये के विवेक से उपजे खराब असर से केवल राजनीतिक दल ही प्रभावित होते हैं.

मीडिया की कृतज्ञता इस तथ्य से निकलती है कि पत्रकारिता सबसे अच्छा रेस्तरां है, जहां ऐसे हलवे परोसे जा सकते हैं. कोई भी खबर इतनी दक्षता से नहीं बिकती, जितनी अपने खुद के जख्मों से राजनेताओं का खत्म हो जाना. दर्शक की हंसी मुफ्त और संक्रामक दोनों होती है. यही दो विशेषता है, जिसे मीडिया सबसे कीमती मानता है.

जन उपभोग के ये महान रसोइये अपने उच्च मानकों से इसलिए फिसलते हैं, क्योंकि हैमबर्गर की तरह लोकप्रिय सोशल मीडिया के इस दौर में फास्ट फूड बनाने के लालच को रोकना मुश्किल है. सोशल मीडिया में सभी चीजें हकीकत के साथ बेपर्दा हो जाती हैं. 140 शब्दों से अधिक का कमेंट मानो असामाजिक हो जाता है. इसलिए संवाद आरोपप्रत्यारोप तक है, कि समझने के लिए.

यह मौजूदा टीवी बहसों के लिए बेहद उपयुक्त है. इसके लिए केवल पत्रकारों को ही दोष दें. यही दर्शक चाहता है और ऐसा ही उसे हासिल होता है. स्वाभाविक तौर पर कम शब्दों के सबसे अधिक असर के लिए लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड भी होना चाहिए. इसके लिए मूर्ति देना उचित नहीं होगा. चिमटी बेहतर विकल्प हो सकता है.

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