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विवाह, तलाक और हक

।।सुधांशु रंजन।।(वरिष्ठ टीवी पत्रकार)केंद्र सरकार ने तलाक सरल बनाने और मंत्रियों को पतियों की जायदाद में हक दिलाने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 तथा विशेष विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन का निर्णय किया है. विवाह अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2010 को 4 अगस्त, 2010 को तत्कालीन विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने लोकसभा में पेश किया […]

।।सुधांशु रंजन।।
(वरिष्ठ टीवी पत्रकार)
केंद्र सरकार ने तलाक सरल बनाने और मंत्रियों को पतियों की जायदाद में हक दिलाने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 तथा विशेष विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन का निर्णय किया है. विवाह अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2010 को 4 अगस्त, 2010 को तत्कालीन विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने लोकसभा में पेश किया था. तब इसे स्थायी संसदीय समिति को सौंपा गया था, जिसने अपनी अनुशंसा दे दी है. मंत्री समूह ने उसे मंजूर भी कर लिया है. संभावना है कि संसद के मॉनसून सत्र में इसे पेश किया जायेगा.

प्रस्तावित संशोधनों में एक प्रमुख प्रावधान यह है कि पति या पत्नी कोई भी इस आधार पर तलाक की अर्जी दे सकता है कि उसकी शादी अंतिम रूप से टूट गयी है. इसके लिए दोनों को याचिका देने से पहले कम-से-कम तीन वर्षो तक अलग रहना पड़ेगा. पत्नी को अधिकार दिया गया है कि वह इस आधार पर तलाक का विरोध कर सकती है कि शादी खत्म होने से उसे आर्थिक संकट हो सकता है. अदालत को देखना होगा कि बच्चों के लिए पर्याप्त वित्तीय प्रबंध किया गया है.

विधेयक में एक नया प्रावधान जोड़ा गया है कि पत्नी को पति की पैतृक संपत्ति में भी हिस्सा मिलेगा और यदि उसका विभाजन संभव न हो तो पति के हिस्से का मूल्यांकन कर उसे भरपूर मुआवजा दिया जायेगा. यह प्रावधान विवादास्पद है और इसका विरोध भी शुरू हो गया है. केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रलय ने भी पहले इसका विरोध किया था, हालांकि बाद में अपना पक्ष बदल दिया. आशंका व्यक्त की जा रही है कि ऐसा हक देने से तलाक के मामले बढ़ेंगे, जिससे भारतीय परिवार व्यवस्था के परंपरागत मूल्य प्रभावित होंगे. कई प्रतिष्ठित महिलाओं ने भी इसका विरोध किया है. उनका मत है कि जोर आर्थिक आत्म-निर्भरता पर होना चाहिए.

दूसरा पक्ष यह है कि पत्नी के सहयोग से ही पति धन कमा पाता है. पत्नी घर संभालती है, इसलिए पति बाहर स्वच्छंद भाव से काम कर पाता है. परंतु इस कमाई में पत्नी के योगदान को अकसर नजरअंदाज किया जाता है. यह तर्क अकाट्य है, परंतु यह लागू होता है पति द्वारा अर्जित संपत्ति पर. उसकी पैतृक संपत्ति में पत्नी का योगदान भला कहां से हो गया?

महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए पिता की संपत्ति में पहले ही उन्हें भाई के बराबर अधिकार दिया जा चुका है. पैतृक संपत्ति के मामले में अब बेटे-बेटी में कोई फर्क नहीं रह गया है. हालांकि इससे भी विवाद बढ़ा है. इसमें एक और समस्या है कि यदि बेटी सभी बच्चों में सबसे बड़ी है तो पिता की मौत के बाद परिवार की कर्ता हो जायेगी. यदि पिता के जीवनकाल में बंटवारा न हुआ हो तो कर्ता के रूप में कुछ जिम्मेवारियों के निर्वहन के लिए उसे संयुक्त जायदाद को भी बेचने का हक होगा. इतना ही नहीं, वर्तमान कानून के अनुसार बेटी की शादी में दहेज देने के लिए यदि पैतृक संपत्ति को बेचनी पड़े, तो भी बंटवारे के समय बची हुई संपत्ति में उसका बराबर का हिस्सा होगा. अब पति की पैतृक संपत्ति में भी हक देने का सीधा अर्थ यह होगा कि मायके एवं ससुराल दोनों की पैतृक संपत्ति पर उसका कब्जा होगा. एक सच्चाई जरूर है कि तलाक की स्थिति में अकसर पति दलील देता है कि उसके पास कुछ भी संपत्ति नहीं है. यदि पति असंगठित क्षेत्र में काम करता है तो उसकी आय का पता लगाना मुश्किल है.

एक और विवादास्पद पहलू यह है कि जहां पत्नी आर्थिक संकट के आधार पर तलाक का विरोध कर सकती है, वहीं ऐसा अधिकार पति को नहीं दिया गया है. इसके अलावा, यदि पति तलाक की याचिका दायर करता है तो उस पर दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा आदि के झूठे मामले ठोक दिये जाते हैं, जिसमें पति के साथ उसके सारे रिश्तेदार भी जेल चले जाते हैं. वैसे भी यदि किसी स्त्री को तलाक लेना होता है तो वह पति पर झूठे केस ठोक देती है. इसीलिए अब बहुत सी महिलाएं भी ऐसे कानूनों के विरोध में उठ खड़ी हुई हैं, क्योंकि उन्हें भी झूठे मुकदमों में जेल की हवा खानी पड़ रही है. उनका कहना है कि महिला का अर्थ मां एवं बहन भी है, केवल पत्नी नहीं.

तात्पर्य यह नहीं कि स्त्रियों का शोषण नहीं होता है. शोषण सदियों से हो रहा है, परंतु इसका समाधान समस्या से भी बद्तर साबित हो रहा है. स्त्री-पुरुष के सम्मोहक संबंध को केवल आर्थिक आयाम देकर कानून के जरिये सभी समस्याओं का हल दूढ़ने की कोशिश की जा रही है. नतीजा है कि परिवार टूट रहे हैं. जिस रफ्तार से तलाक बढ़ रहे हैं, लगता है कि तलाक की दर में भारत अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा. फिर भी कुछ महिलाएं मानती हैं कि तलाक की संख्या में जितनी वृद्धि होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हुई है!

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