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खेती के लिए ठोस पहल तुरंत जरूरी
एक तरफ देश आर्थिक महाशक्ति बनने के सपने संजो रहा है, दूसरी तरफ कई राज्यों में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. बीते साल सिर्फ महाराष्ट्र में 3,146 किसानों ने जान दे दी और इस वर्ष भी राज्य के विदर्भ में 29 लोगों के मरने की खबर है. देश में 1995 से अब […]
एक तरफ देश आर्थिक महाशक्ति बनने के सपने संजो रहा है, दूसरी तरफ कई राज्यों में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. बीते साल सिर्फ महाराष्ट्र में 3,146 किसानों ने जान दे दी और इस वर्ष भी राज्य के विदर्भ में 29 लोगों के मरने की खबर है. देश में 1995 से अब तक तीन लाख के करीब किसान अपनी जान दे चुके हैं.
बीते दिसंबर में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी रिपोर्ट में कहा था कि महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. इसमें गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में भी आत्महत्या की घटनाओं का उल्लेख भी था. लेकिन, किसानों की दुर्दशा को मुद्दा बना कर सत्ता में आयी भाजपा सरकार आठ महीने बाद भी कोई ठोस नीति देश के सामने नहीं रख सकी है.
पार्टी ने अपने घोषणापत्र में और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी भाषणों में खेती और ग्रामीण विकास में सरकारी निवेश के साथ किसानों को कम-से-कम 50 फीसदी लाभ सुनिश्चित करने के दावे किये थे. किसानों के लिए पेंशन और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को कृषि से जोड़ने का वादा भी था. लेकिन, निवेश तो छोड़ दें, अब यूरिया पर से नियंत्रण हटाने की बात हो रही है, मनरेगा के बजट में कमी कर दी गयी है और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी सरकार चुप्पी ओढ़े हुए है. महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव से पहले भी भाजपा ने कपास उद्योग को बढ़ावा देकर किसानों को लाभ पहुंचाने की घोषणा की थी. देश के सकल घरेलू उत्पादन में खेती का योगदान 18 फीसदी है, जबकि इसमें देश की कुल कार्यशक्ति के करीब 50 फीसदी हिस्से को रोजगार हासिल है. यदि मुद्रास्फीति से जोड़ कर देखें, तो पिछले दो दशकों से किसानों की आय थमी हुई है.
किसान संगठन और विशेषज्ञ लगातार यह मांग करते रहे हैं कि किसानों की आत्महत्या को रोकने के लिए कर्जा माफी, मुआवजे और राहत के साथ कृषि क्षेत्र के लिए ठोस नीतियों की भी जरूरत है. लेकिन, विकसित देशों के उलट हमारे देश में सब्सिडी में लगातार कमी की जा रही है. खेती की बदहाली को बताने के लिए आखिर और कितने किसानों को अपनी जान देनी पड़ेगी? सरकार को उनकी स्थिति में सुधार के लिए तुरंत नीतिगत पहल करनी चाहिए.
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