।। धर्मेद्र प्रसाद गुप्त ।।
(प्रभात खबर, धनबाद)
रघुवीर सहाय की रचना है– और ऐसे मौकों पर हंसो/जो कि अनिवार्य हों/जैसे गरीब पर ताकतवर की मार/जहां कोई कुछ कर नहीं सकता/उस गरीब के सिवाय/और वह भी अक्सर हंसता है.
सुबह कासिम चचा के घर के पास से गुजर रहा था, तो देखा कि वह उर्दू अखबार पर नजरें गड़ाये हुए हैं. उनके चेहरे का हाव–भाव देख मैं ठिठका. लगा, कोई गंभीर मसला है. उनकी आंखें एक खबर पर गहरे तक जमी थीं. उत्सुकतावश उनके पास बैठ गया और पूछा, ‘क्या कुछ खास छपा है अखबार में?’ चचा फट पड़े. रमजान का महीना चल रहा है. रोजा रखे हुए हैं.
इसलिए संयमित शब्दों में उनके दिल की भड़ास तीर की तरह निकली, ‘देखो इ ससुरा सब को, 35 लाख के ट्वॉयलेट में बैठ कर हम गरीबन सब का पैमाना तय करता है. कहता है कि हर दिन 33 रुपया से अधिक खर्चे तो गरीब नहीं कहलाओगे. ट्वायलेट एही ला न बनवाया था, ताकि उसमें बैठ कर हम गरीबन की इतिश्री करेगा सब!’
मुझे समझते देर नहीं लगी कि चचा योजना आयोग द्वारा तय किये गये गरीब और गरीबी के नये पैमाने पर गरम थे. वह बोले, ‘बेटा, तुम लोग पत्रकार हो. बताओ कि शहर में 33 रुपये में कोई पेट भर सकता है क्या? 32 रुपये किलो प्याज, 60 रुपया किलो टमाटर बिक रहा है.’ चचा का दर्द छलक कर जुबां पर आ गया, आंख पर से चश्मा हटा कर बोले, ‘हमारे हुक्मरान कहते हैं कि गरीबी घटी है.
मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होनेवाले ये लोग हम गरीबों का दर्द क्या जानें. सेहरी, इफ्तार का सामान खरीदने जाओ तो दाम सुन कर जी करता है कि पानी पीकर रह जायें. यहां देखो, अखबार में छपी खबर पर उंगली रख देते हैं, ‘इ नेता का बयान पढ़ो. कहता है कि मुंबई में बब्बर थाली 12 रुपये में मिलती है. इससे पेट भर जायेगा. न जाने यह कौन–से चश्मे से देखता है. अब तो हम गरीबों का भगवान ही मालिक है. इनकी चले तो हवा पिला कर जिंदा रखें. और बोल दें कि हम दोयम दरजे के लोग ऐसे भी जी सकते हैं.’
चचा गहरी सांस लेकर शांत हुए. मैंने सोचा कि यहां रुकने का मतलब है, बहस दूर तलक जायेगी. मैं आगे बढ़ गया. चलते–चलते सोचने लगा– चचा का दर्द दुरुस्त था. संगमरमरी महल व एसी कमरों में रहनेवाले भला झोपड़ीवालों की जरूरत क्या समझेंगे? चचा की बात पर कवि दीपक ‘भारतदीप’ की ये चंद पंक्तियां मौजूं लगती हैं–वातानुकूलित कक्षों में बैठकर वह/देश से गरीबी हटाने के साथ/विकास दर बढ़ाने पर चिंतन करते हैं/बहसों के बाद/कागजों पर दौलतमंदों के/घर भरने के लिये शब्द भरते हैं. और, भलाई बेच रहे लोग/अपना घर भरने के लिए/महफिलों में गरीबी पर/अफसोस के सुर/गाये जाते मजे के लिए/मगर गरीब का कोई हमराह नहीं होता.