कांग्रेस ने रविवार को अपना 130वां स्थापना दिवस ऐसे वक्त में मनाया है, जब उसका राजनीतिक वर्चस्व देश के करीब 10 फीसदी हिस्से में सिमट चुका है. आम चुनाव में अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार के साथ इस वर्ष उसने आंध्र प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र की सत्ता भी गंवायी है. झारखंड और जम्मू-कश्मीर, जहां वह सत्ताधारी गंठबंधन का हिस्सा थी, के हालिया चुनावों में भी उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा है.
इस तरह देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी इस समय भाजपा के बढ़ते प्रभाव को चुनौती दे पाने में पूरी तरह असहाय दिख रही है. लेकिन, साल की आखिरी वेला में स्थापना दिवस के औपचारिक आयोजन में पार्टी ने लगातार मिली हार से सबक लेने के कोई संकेत नहीं दिये. एक दिन पहले पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की मांग की थी, लेकिन इस आयोजन से राहुल अनुपस्थित रहे. पार्टी के एक तबके का मानना है कि आंतरिक मतभेदों के कारण पार्टी भविष्य की स्पष्ट रणनीति नहीं बना पा रही है और राहुल गांधी को अब तक स्वतंत्र रूप से बड़ी भूमिका नहीं मिल पायी है. लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का भी समुचित रूप से मजबूत व सक्रिय होना जरूरी है.
इसलिए नेतृत्व को भविष्य की सोच के साथ पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयास में जुटना चाहिए, नये राजनीतिक मुहाबरों व कार्यक्रमों के जरिये वक्त के साथ बदलती जन आकांक्षाओं के साथ खुद को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. 1955 में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष यूएन ढेबर ने कांग्रेस की भावनात्मक परिभाषा देते हुए कहा था, ‘यह दासता की जंजीरों में बंधी मानवता के दुख-दर्द से भरे हृदय से निकली आंसू है, जिसे जीवन मिला है.
धारा बनना इस आंसू की नियति थी, धारा को नदी और नदी को विशाल गंगा या ब्रrापुत्र बनना था, जो युगों की गलतियों और कमजोरियों को धो सके, लोगों को परस्पर जोड़ सके, उनके दिलों में नया जीवन और भाव पैदा कर सके. इसे एक ऐसी ताकत बनना था, जिसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में न हो.’ आज कांग्रेस को ढेबर जैसे महान नेताओं के संकल्पों को सामने रख कर आत्ममंथन करना चाहिए, ताकि वह अपनी भूलों को सुधारने की राह तलाश सके.