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नदियां बदला ले ही लेंगी

।। रविभूषण ।।(वरिष्ठ साहित्यकार)– जिन क्रिकेट खिलाड़ियों, अभिनेताओं-अभिनेत्रियों और कॉरपोरेट-जगत का गुणगान करते हम नहीं थकते, उन्होंने इस विपदा-हादसे में क्या किया, क्या दिया! – भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू किये जाने के लगभग एक दशक पहले नागार्जुन ने आठ पृष्ठों की एक लंबी कविता ‘नदियां बदला ले ही लेंगी’ (1980) लिखी थी, जो […]

।। रविभूषण ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
– जिन क्रिकेट खिलाड़ियों, अभिनेताओं-अभिनेत्रियों और कॉरपोरेट-जगत का गुणगान करते हम नहीं थकते, उन्होंने इस विपदा-हादसे में क्या किया, क्या दिया! –

भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू किये जाने के लगभग एक दशक पहले नागार्जुन ने आठ पृष्ठों की एक लंबी कविता ‘नदियां बदला ले ही लेंगी’ (1980) लिखी थी, जो उनके कविता संग्रह ‘पुरानी जूतियों का कोरस’ (वाणी प्रकाशन, 1983) में संकलित हैं. इंदिरा गांधी की 1980 में पुनर्वापसी पर लिखी गयी इस कविता का राजनीतिक संदर्भ है. इंदिरा गांधी नष्ट-भ्रष्ट हो रही व्यवस्था का प्रतीक हैं.

नागार्जुन ने इस कविता में ‘उल्लुओं के मुंडेरों पर बैठने’ की बात कही है, ‘गिरिजन-हरिजन’ की दशा-दुर्दशा दिखायी गयी है और इंदिरा गांधी के ‘गाल बजाने, भाषण मारने’ के जिक्र के साथ राजनीतिक दलों के घटकों में ‘उठापटक’ की ओर हमारा ध्यान दिलाया है और हमें ‘भारत माता की काया में गलित कोढ़ के घाव’ दिखाये हैं. उस समय उन्होंने यह देख लिया था -‘भारत पुत्री ही सवार है भारत माता के सीने पर.’ कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-‘हां, पानी में आग लगाओ, नदियां बदला ले ही लेंगी. अंत करेंगी यही तुम्हारा, यही तुम्हारी जड़ खोदेंगी.’

उत्तराखंड में भीषण तबाही का मुख्य कारण क्या है? ठेकेदारों, माफिया, कॉरपोरेटों, भ्रष्ट नौकरशाहों, निर्लज्ज नेताओं, बिल्डरों के हवाले है उत्तराखंड, जिन्होंने मिल-जुल कर पहाड़ों को नंगा किया, उनकी भौगोलिक संरचना से खिलवाड़ किया, वनों की निर्ममतापूर्वक कटाई की, नदियों को बांधा, बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं लागू कीं और लंपट, वहशी, घिनौनी, आवारा पूंजी को देवभूमि तक फैला दिया.

विकास के जिस मॉडल के हिमायती हमारे प्रधानमंत्री और गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ सभी दलों के नेतागण हैं, वह वस्तुत: प्रकृति और जीवन-विरोधी है. यमुनोत्री से आरंभ होनेवाली चार धाम की यात्र में, वहां फंसे यात्री-स्थानीय वासी आज सर्वाधिक बुरी स्थिति में हैं. देवभूमि और तपोभूमि अब श्मशान भूमि-प्रलय भूमि बन गयी है. विकास के समस्त ढांचे को प्रकृति की ओर से दी गयी यह सबसे बड़ी चेतावनी है. उत्तराखंड की आपदा दैवीय, प्राकृतिक आपदा न होकर मानव-निर्मित है, जिसका विकास-परियोजनाओं से, बड़े बांधों आदि से सीधा संबंध है.

हिमालय जल का स्रोत और भंडार है. चार करोड़ वर्ष का यह पहाड़ क्या इसके पहले कभी इतने गुस्से में था? क्या हजार वर्ष से अधिक पहले का केदारनाथ धाम आज जैसी स्थिति में कभी रहा? क्या इसके पहले नदियां, कभी इतनी आक्रोशित हुई थीं? विकास के लिए पहाड़ों की छाती चीर कर चौड़ी सड़कें बनाना उचित था? पहाड़ों के पेट में बारूद भर कर उसे तोड़ते समय क्या यह जानने की कोशिश की गयी कि पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाओं को रोकने की क्षमता है? नदियों का स्वाभाविक मार्ग बदलने से क्या नदियां खामोश रहेंगी? जो हिमालय ‘एशिया का वाटर टावर’ कहा जाता रहा है, वहां की नदियां क्या लोभियों, धनपशुओं की कुत्सित ‘लीला’ को चुपचाप देखती रहतीं? अनुपम मिश्र जैसे पर्यावरणविद् इस आपदा को ‘नदी धर्म’ को भूलने के दुष्परिणाम के रूप में देखते हैं.

13 वर्ष में उत्तराखंड में सात मुख्यमंत्री रहे हैं. सरकार भाजपा की रही हो या कांग्रेस की, किसी ने पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया. वन माफियाओं और ठेकेदारों को संरक्षण दिया गया. नदियों के स्वाभाविक-प्राकृतिक प्रवाह-मार्ग को रोकने और उसे मोड़ने का सबने काम किया. पहाड़ों में किये जा रहे विस्फोट न थमे, न कमे. खोखली व्यवस्था ने पहाड़ों को खोखला किया. भू-स्खलन बढ़ता गया.

बादल फटना, मात्र प्राकृतिक घटना नहीं है. पर्यावरण से की गयी छेड़छाड़ के कारण हवाएं ऊपर बहुत कम बह पाती हैं. नव उदारवादी अर्थव्यस्थ और विकास के दानवी मॉडल के दौर में अधिक मात्र और तीव्रता में बादल फटे हैं. केदारनाथ, और बद्रीनाथ सहित पांच जिलों में हादसा पहले नहीं हुआ था. एक करोड़ की आबादी वाले उत्तराखंड में 15-20 लाख लोग इस विपदा-आपदा से प्रभावित हुए हैं.

पांच जिले अधिक प्रभावित हुए. सैकड़ों गांव बह गये. नब्बे धर्मशालाओं और अनेक होटल जल में समा गये. हजारों घर नष्ट हो गये. सैकड़ों गाड़ियां, बसें, टैक्सियां, यात्री समेत बह गयीं. एक अनुमान के अनुसार कम से कम 10 हजार लोग मौत के शिकार हुए हैं. लाशें इलाहाबाद तक बह कर आयी हैं. मलबों के नीचे दबी लाशों की संख्या का अनुमान नहीं किया जा सकता. घोड़े, खच्चर, पालकी, आदमी सब बह गये. जमीन सात-आठ फीट ऊपर उठ गयी.

पहचान, दस्तावेज सब नष्ट हो गये. सडकें बह गयीं. पुल ध्वस्त-नष्ट हो गये. भू-स्खलन, पहाड़ों की टूटन, बादलों के फटने, बाढ़-बारिश सबने मिल कर जो विनाश-लीला की है, वह प्रत्येक मनुष्य को परेशान करेगी. पहली बार भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी और अन्य नदियां इतने क्रोध, आक्रोश और आवेग में एक साथ इकट्ठी हुईं. बीस वर्ष पहले नदियों के तट पर और उनकी राह में इतनी संख्या में मकान नहीं बने थे.

विकास और पर्यावरण के बीच किसी संबंध के न होने के नुकसान को अब सब देख रहे हैं. तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थलों में बदलने और बड़े-मंझोले बांध-निर्माण के परिणाम हमारे सामने हैं.

उत्तराखंड के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन-उद्योग का योगदान लगभग तीस प्रतिशत है. पर्यटन-स्थल बनने के बाद साधुओं-संन्यासियों का स्वभाव भी बदला. उनमें से कुछ के पास से लाखों रुपये बरामद हुए हैं. उंगली काट कर सोने की अंगूठियां निकाली गयी हैं.

धर्म की राजनीति के साथ धर्म का प्रदर्शन और पाखंड भी बढ़ा. तीर्थस्थलों में बड़े-बड़े होटल बने. अधिक सुविधाओं ने मनुष्यता का क्षरण किया. घृणित राजनीति ने लाशों पर राजनीति की. राहत-सामग्री से भरे ट्रकों को सोनिया गांधी ने झंडी दिखायी और नरेंद्र मोदी ने गुजरातवासियों की ‘चिंता’ की. उनके लिये देश की नहीं, ‘प्रदेश’ की ‘चिंता’ प्रमुख रही. तेदेपा और कांग्रेस सांसदों ने देहरादून में हाथापाई की. जिनके पास कोई संवेदना नहीं, वे ‘दिली संवेदना ’ प्रकट करते रहे. जिन क्रिकेट खिलाड़ियों, अभिनेताओं-अभिनेत्रियों और कॉरपोरेट-जगत का गुणगान करते हम नहीं थकते, उन्होंने इस विपदा-हादसे में क्या किया, क्या दिया! बीसीसीआइ ने उत्तराखंड राहत कोष में कितनी राशि दी?

नदियां बाद में बदला नहीं लें, इस लिए उत्तराखंड में 17 बड़ी-छोटी नदियों पर प्रस्तावित बांधों की जो संख्या 558 है, उस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. लाखों लोगों की जीविका के साधन खत्म हो गये, उन पर और स्थानीय लोगों के पुनर्वास पर शीघ्र ध्यान देना होगा. बड़ा प्रश्न यह है कि निकम्मी सरकार, भ्रष्ट व्यवस्था और प्रशासन अब भी चेते, क्योंकि सेना और आइटीबीपी के जवानों ने ही तीर्थयात्रियों को निकाला, सरकार फेल रही! क्या अब हमारी सुरक्षा की जिम्मेवारी केवल सेना पर है? गवर्नेस के फेल हो जाने के बाद क्या बच जाता है- सैनिक सुशासन? नेतागण आत्ममंथन करें और विकास विनाश मॉडल पर पुनर्विचार करें.

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