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भूलिए मत, याद रखिए

।।विश्वनाथ सचदेव।।(वरिष्ठ पत्रकार)भूल जाओ और माफ कर दो, स्कूल के दिनों में जब एक अध्यापक ने ‘आदर्श जीवन’ का यह नुस्खा सिखाया था, तो बहुत अच्छा लगा था. एक रोमांच-सा हुआ था सुन कर. फिर जब उन्होंने उदाहरण देकर यह समझाने की कोशिश की थी कि किसी के गलती या अपराध को भुला कर कैसे […]

।।विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
भूल जाओ और माफ कर दो, स्कूल के दिनों में जब एक अध्यापक ने ‘आदर्श जीवन’ का यह नुस्खा सिखाया था, तो बहुत अच्छा लगा था. एक रोमांच-सा हुआ था सुन कर. फिर जब उन्होंने उदाहरण देकर यह समझाने की कोशिश की थी कि किसी के गलती या अपराध को भुला कर कैसे जिंदगी को आसान बनाया जा सकता है, तो लगा था इस आसान-सी बात को हम क्यों याद नहीं रख पाते? और वह सब हमें क्यों याद रहता है जो जीवन में सिर्फ कड़वाहट घोल सकता है?

हाल ही में जब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुसलमानों को गुजरात दंगे भुला देने की अपील की थी, तो अचानक मुङो बचपन के उस अध्यापक की बात याद आ गयी. लगा कि ठीक ही तो कह रहे हैं. आखिर कब तक हम अतीत का बोझ ढोते रहेंगे. जिंदगी को आगे बढ़ना है तो कभी न कभी बीती बातों के बोझ से छुटकारा पाना ही होगा. वह कभी अभी क्यों नहीं हो सकता?

भुला देने की इस सलाह के कुछ ही दिन बाद जयपुर में एक परिसंवाद में राजनाथ सिंह ने कहा, हम लोगों का दिल जीत कर राष्ट्र बनाना चाहते हैं. क्या आप समझते हैं कि आपके दिलों में भय भर कर यह काम हो सकता है? फिर यह खबर आयी कि भाजपा अल्पसंख्यक मुसलमानों की समस्याओं के समाधान के लिए एक प्रकोष्ठ बना रही है और एक रणनीति बना कर उनके मन का भय दूर करने का काम किया जायेगा. बीते को भुलाने, दिलों को जोड़ने और भय को मिटानेवाली ये तीनों बातें अलग-अलग अखबारों में कही गयी हैं, पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि तीनों एक-दूसरे से जुड़ी हुई बातें हैं. तीनों बातें अच्छी हैं, पर यह समझना भी मुश्किल नहीं है कि ये तीनों बातें कहीं न कहीं उस राजनीति से भी जुड़ी हैं, जो भाजपा के लिए जरूरी लग रही है. फिर भी, इन बातों के महत्व को नकारा नहीं जाना चाहिए. देश में सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करने की हर कोशिश को सराहा जाना चाहिए. भूलना, निश्चित रूप से, मनुष्य को मिली एक बहुत बड़ी सौगात है. भूलना न आता तो यादों के बोझ तले दबा रहता जीवन घुट जाता.

लेकिन कुछ बातों को याद रखना जरूरी भी होता है, ताकि जीवन सावधान रहे. जिस 2002 को भुलाने की बात भाजपा अध्यक्ष कर रहे हैं, वह गोधरा कांड वाला साल था. गोधरा में रेल यात्रियों को जिंदा जलाया जाना और फिर सारे गुजरात में प्रतिहिंसा की आग में सांप्रदायिक सौहार्द का धू-धू कर जलना हमारे वर्तमान के इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय है. मनुष्य के दानव हो जाने का उदाहरण है. उसे भुला कर नहीं, उसे याद रख कर ही उसकी पुनरावृत्ति से बचने का विवेक जाग सकता है. हमें याद रखना होगा कि वह एक षड्यंत्र था. हमारी पंथ-निरपेक्षता, बहुजातीयता, बहुभाषिता, बहुधर्मी संस्कृति के खिलाफ षड्यंत्र. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को आगाह किया था कि वे ‘राजधर्म’ का पालन करें. उन्होंने यह भी कहा था कि गुजरात में जो कुछ हुआ उससे देश का सिर शर्म से झुक गया है. उस शर्म को भुला कर नहीं, याद रख कर ही हम इस बारे में सोच सकते हैं कि भविष्य में ऐसी शर्म से कैसे बचा जाये. इसे भुला देना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपा लेनेवाली बात होगी. धर्म के नाम पर हिंसा करना अथवा धर्म को आधार बना कर राजनीति करना मनुष्यता का नहीं पशुता का उदाहरण है.

अखबार के जिस पन्ने पर राजनाथ सिंह के इस भाषण का समाचार छपा था, उसी पन्ने पर एक समाचार और भी था. उसमें कहा गया था कि सरकार के पास ‘आपातकाल की अवधि का कोई दस्तावेज नहीं है.’ सरकार ने यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में दी थी. प्रश्न था कि आपातकाल की घोषणा किसने की थी और देश का प्रधानमंत्री कौन था? 50-60 की उम्र के हर भारतीय नागरिक को इस सवाल का जवाब पता होगा. लेकिन हमारी वर्तमान सरकार को नहीं पता है. दो साल तक तलाश करने के बाद यह उत्तर दिया गया. मुङो लगता है कि यह स्थिति भी एक कालखंड को भुला देने जैसी ही है. यह आपातकाल को भुला देने की एक कोशिश है. जबकि जरूरत है उसे याद रखने की, ताकि यह भी याद रहे कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह वैसी स्थिति फिर न आने दे. जरूरी है यह याद रखना कि 1975 में आपातकाल लागू करने वाली सरकार ने भारत के नागरिकों के सांविधानिक अधिकार ही नहीं छीने थे, उसे मनुष्यता के अधिकारों से भी वंचित किया था. यह सब याद रख कर ही हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रह सकते हैं.

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