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अफगानिस्तान में तालिबान!

।। डॉ गौरीशंकर राजहंस ।।(पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत)अमेरिका का यह इतिहास रहा है कि वह जिस भी देश पर चढ़ाई करता है, वर्षों तक युद्ध के बाद जब उसे अपनी हार आसन्न दिखती है तब जल्दी में वहां से भाग खड़ा होता है. वियतनाम में उसने ऐसा ही किया था, जहां वर्षों चली लड़ाई […]

।। डॉ गौरीशंकर राजहंस ।।
(पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत)
अमेरिका का यह इतिहास रहा है कि वह जिस भी देश पर चढ़ाई करता है, वर्षों तक युद्ध के बाद जब उसे अपनी हार आसन्न दिखती है तब जल्दी में वहां से भाग खड़ा होता है. वियतनाम में उसने ऐसा ही किया था, जहां वर्षों चली लड़ाई में वियतनाम के हजारों निदरेष सैनिकों के साथ-साथ आम लोग भी मारे गये थे.

अमेरिका के भी हजारों युवक इस लड़ाई में मारे गये. इससे अमेरिकी जनता अपनी सरकार के खिलाफ उग्र होने लगी और पूछने लगी कि सुदूरपूर्व में बसे वियतनाम के साथ युद्ध कर अमेरिका को क्या हासिल होगा? क्यों अमेरिकी युवक वहां मारे जाएं और जनता से टैक्स के रूप में लिये पैसे को पानी की तरह बहाया जाये? आखिर प्रबल जनमत के दबाव में अमेरिका जल्दी में वियतनाम से निकल भागा. उसने परोक्ष रूप से हार भी स्वीकार ली. अमेरिका के निकलने के बाद वियतनाम की फौज, ‘वियतकांग’, ने चुन-चुन कर उन वियतनामी नागरिकों को प्रताड़ित करना शुरू किया, जिन्होंने युद्ध में अमेरिका का साथ दिया था.

कमोबेश यही हालत अफगानिस्तान में अमेरिका की है. तालिबानों का सफाया करने के लिए अमेरिका ने नाटो की सेनाओं के साथ मिल कर 2001 में अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर दी. उसे गलतफहमी थी कि कुछ सप्ताह या महीने की लड़ाई में वह पूरे अफगानिस्तान से तालिबान का सफाया कर देगा. परंतु 12 वर्षों बाद भी अमेरिका को कोई उल्लेखनीय सफलता अफगानिस्तान में नहीं मिली.

उधर अमेरिका की आर्थिक स्थिति खराब होने के साथ वहां पूछा जाने लगा कि एशिया में तालिबान के खिलाफ युद्ध से अमेरिका को क्या लाभ होगा? मंदी के इस दौर में अमेरिका क्यों अफगान युद्ध में पानी की तरह पैसा बहाये? उसे जीत की कोई संभावना भी नहीं दिख रही है. इसी कारण अमेरिका ने फैसला किया कि वह 2014 तक अफगानिस्तान से निकल जायेगा. अमेरिका के साथ ही नाटो की फौज भी अफगानिस्तान से निकल जायेगी.

पिछले कई वर्षों से अमेरिका तालिबान के साथ समझौता करने का गुप्त प्रयास कर रहा था कि अमेरिकी और नाटो फौज के निकलने के बाद तालिबान किस तरह अफगानिस्तान में शांति बनाये रखेंगे. लेकिन तालिबान शुरू से ही अफगान राष्ट्पति हामिद करजाई या उनके प्रतिनिधियों से कोई बात करने पर राजी नहीं था. उसका कहना था कि समझौता हो तो सीधे अमेरिकी प्रतिनिधियों से हो.

तालिबान के रुख को देखते हुए अमेरिका ने पहले उसे कतर की राजधानी दोहा में एक दफ्तर खोलने की इजाजत दी. अमेरिका का कहना था कि यह जनसंपर्क दफ्तर होगा, पर जब तालिबान ने दफ्तर का नाम इसलामी अमीरात ऑफ अफगानिस्तान रख दिया और घोषणा की कि यह तालिबान का विदेश स्थित राजदूतावास होगा, तो अमेरिका खून का घूंट पीकर तालिबान की इस शर्त को भी मानने के लिए तैयार हो गया. अफगान राष्ट्पति करजाई और भारत के प्रतिनिधियों ने अमेरिका को ऐसा करने से रोकने का असफल प्रयास किया.

अब समझौते की पहल पर पाकिस्तान ने कहा है कि समझौता वार्ता में पाकिस्तान के हक्कानी ग्रुप के तालिबान भी भाग लेंगे. इस वार्ता के लिए तालिबान ने अमेरिका की एक भी शर्त नहीं मानी और कहा कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ स्वतंत्र व संप्रभु राज्य के तौर पर वार्ता करना चाहता है.

तालिबान ने अफगानिस्तान के वर्तमान संविधान की रक्षा करने का भी कोई वायदा नहीं किया. न उसने यह वायदा किया कि वह अफगानिस्तान में महिलाओं व अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करेगा. उसने यह भी वादा नहीं किया कि तालिबान अलकायदा से अलग होगा और हिंसक गतिविधियों को समाप्त कर देगा. सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि तालिबान ने इस दफ्तर के खुलने के बाद भी कहा कि तालिबान के रुख में कोई बदलाव नहीं आयेगा और वह अमेरिका पर पहले की तरह हमले करता रहेगा.

कुल मिला कर स्थिति चिंताजनक है. अपना पीछा छुड़ाने के लिए अमेरिका तो अफगानिस्तान से निकल जायेगा, पर यह पूरा क्षेत्र गृहयुद्ध की चपेट में आ सकता है. पाक कट्टरपंथी, जिन्हें आइएसआइ मदद कर रहा है, भी चाहेंगे कि अफगानिस्तान में तालिबान का राज हो और बाद में उनकी मदद से वे पाक सरकार को भी अपदस्थ कर दें. इसमें संदेह नहीं कि अमेरिका के रवैये से भारत बेचैन है, क्योंकि यदि अमेरिका अफगानिस्तान को लड़ाकू तालिबान के हाथ सौंप कर वहां से निकलेगा तो इसका प्रभाव सभी पड़ोसी देशों पर पड़ेगा. इसलिए भारत को अमेरिका से दृढ़ता पूर्वक कहना चाहिए कि तालिबान से कोई भी ऐसा समझौता नहीं हो, जिसमें भारत के हितों की अनदेखी हो.

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