सरकार को कार्टेल का रास्ता अपनाना चाहिए. अनेक कृषि उत्पादों में भारत प्रमुख खिलाड़ी है. दूसरे चुनिंदा देशों के साथ मिल कर हम इन उत्पादों के मूल्य को विश्व बाजार में कृत्रिम रूप से बढ़ा सकते हैं, जैसे तेल उत्पादक देशों ने ‘ओपेक’ बना कर किया है.
भारत और अमेरिका के बीच डब्लूटीओ में खाद्य सब्सिडी को लेकर सहमति बन गयी है. गत वर्ष डब्लूटीओ में समझौता हुआ था कि बंदरगाहों पर माल के आवागमन के नियमों को सभी देशों में एकसार बनाया जायेगा, जिससे विदेश व्यापार सरल हो जाये.
यह सहमति भी बनी थी कि भारत द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून के लिए ऊंचे दाम पर किसानों से खरीदे जा रहे खाद्यान्नों को चार वर्षो तक डब्लूटीओ में चुनौती नहीं दी जायेगी. डब्लूटीओ के नियमों में ऊंचे दाम पर किसानों से खरीद करने पर प्रतिबंध होता है, क्योंकि इससे दूसरे देशों को खाद्यान्न सप्लाई करने से वंचित कर दिया जाता है.
मान लीजिये खाद्य सुरक्षा कानून के लिए हमारा फूड कारपोरेशन किसानों से गेहूं 15 रुपये प्रति किलो पर खरीद रहा है. आस्ट्रेलिया इसी गेहूं को 12 रुपये प्रति किलो में सप्लाई करने को तैयार है. फूड कारपोरेशन यदि खरीद मूल्य 12 रुपये कर दे, तो भारत के किसान गेहूं का उत्पादन कम करेंगे और आस्ट्रेलिया के किसानों के लिए भारत का बाजार खुल जायेगा. दोनों दामों में तीन रुपये का अंतर भारत सरकार द्वारा अपने किसानों को दी जा रही सब्सिडी है. इसलिए डब्लूटीओ में व्यवस्था है कि कोई भी देश तय मात्र से अधिक सब्सिडी नहीं देगा. यूपीए सरकार ने डब्लूटीओ में चार वर्ष के लिए इस सब्सिडी को जारी रखने की छूट हासिल की थी, परंतु एनडीए सरकार को यह स्वीकार नहीं रहा. कुछ माह पूर्व डब्लूटीओ में समझौता संपन्न नहीं हो सका था, क्योंकि खाद्य सब्सिडी पर भारत अड़ गया था. भारत की मांग थी कि ऊंचे दाम पर अपने किसानों से खाद्यान्न खरीदने की छूट निरंतर रहे, न कि केवल चार वर्षो तक. अब अमेरिका ने भारत की मांग को मान लिया है. हमारे किसानों से समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदने का रास्ता लंबे समय तक के लिए खुला रहेगा.
गेहूं, धान और गन्ने के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर देती है. किसान आश्वस्त रहता है. वह अरबी, भिण्डी, जीरा, सौंफ, हल्दी, अदरक, गुलाब आदि कम उगाना चाहता है, क्योंकि इन फसलों के मूल्यों में अनिश्चितता रहती है. लेकिन अधिक आय की संभावना इन्हीं फसलों में है. सरकार को चाहिए कि उन तमाम फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दे, जिनमें मांग के उत्तरोत्तर बढ़ने की संभावना है, विशेषकर ऊंचे मूल्य पर बिकनेवाली सब्जियों, मसालों इत्यादि को. ऐसा करने से किसान को विभिन्न फसलों के उत्पादन में रुचि बनेगी. वह न्यूनमत मूल्य से आश्वस्त रहेगा और बाजार मूल्य के बढ़ने पर लाभान्वित होगा.
अन्य कृषि नीतियों पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है. मान्यता है कि अमीर देशों के बाजार खुलने से हमारे उत्पादों की मांग बढ़ेगी. यह बात सही है, किंतु इससे कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि होना जरूरी नहीं है, क्योंकि विश्व बाजार केवल हमारे लिए नहीं, दूसरे सप्लायर देशों के लिए भी साथ-साथ खुल जाता है, जैसे वियतनाम ने कॉफी और काली मिर्च के बाजार में प्रवेश कर लिया है. इससे माल की सप्लाई बढ़ती है. मुक्त बाजार को अपनाने से मांग में जितनी वृद्धि होती है, उससे ज्यादा नुकसान दूसरे सप्लायरों के बाजार में प्रवेश से होता है. इस परिस्थिति में सरकार को कार्टेल बनाने का रास्ता अपनाना चाहिए. अनेक कृषि उत्पादों में भारत प्रमुख खिलाड़ी है. दूसरे चुनिंदा देशों के साथ मिल कर हम इन उत्पादों के मूल्य को विश्व बाजार में कृत्रिम रूप से बढ़ा सकते हैं, जैसे तेल उत्पादक देशों ने ‘ओपेक’ बना कर किया है. भारत और मलयेशिया मिल कर विश्व में रबड़ का मूल्य बढ़ा सकते हैं, यदि दोनों देशों की सरकारें एक ही दर से रबड़ पर निर्यात टैक्स लगा दे. इसी प्रकार बंगलादेश के साथ जूट, श्रीलंका के साथ चाय और वियतनाम व ब्राजील के साथ मिल कर कॉफी के मूल्य बढ़ाये जा सकते हैं. लेकिन, ऐसा करने के लिए खुले बाजार के सिद्धांत को त्यागना पड़ेगा और डब्लूटीओ से बाहर भी आना पड़ सकता है.
सरकार की नीति का एक बिंदु कृषि सब्सिडी में कटौती है. आर्थिक सुधारों के अंतर्गत वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करना जरूरी है, जिसके लिए छुरी कृषि सब्सिडी पर चल रही है, जैसे फर्टिलाइजर एवं बिजली की दरों में सरकार वृद्धि कर रही है. राजनीतिक दबाव के कारण सरकार ने इस दिशा में विशेष सफलता नहीं हासिल की है, परंतु मंशा स्पष्ट है. यहां प्रश्न सब्सिडी की दिशा का है. तालाब, चैक डैम, कोल्ड स्टोरेज और छोटी फसलों को मूल्य समर्थन में सब्सिडी सार्थक है, क्योंकि इनकी मदद से किसान ऊंचे मूल्य वाली फसलों की ओर उन्मुख होता है. इसके विपरीत बिजली पर सब्सिडी देने से भू-जल का अति दोहन होता है. हार्वेस्टर पर सब्सिडी से गरीब खेत मजदूर का रोजगार छिन जाता है. अत: प्रश्न सब्सिडी बढ़ाने का नहीं, बल्कि सब्सिडी की सही दिशा निर्धारित करने का है. साथ ही, सबसे जरूरी यही है कि उन फसलों के उत्पादन में वृद्धि की जाये, जिनमें मांग बढ़ने की संभावना है.
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
bharatjj@gmail.com