भारत ने अपने इलाके के देशों के साथ बेहतर रिश्ते बनाने में स्पेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं. परिणाम यह है कि श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश भी चीन की ओर देख रहे हैं.
एक साल पहले आज के दिन भारत के मंगलयान के प्रक्षेपण की खबर छपी थी. पांच नवंबर के प्रक्षेपण के बाद गत 24 सितंबर को जब मंगलयान ने सफलता हासिल की थी, तब पश्चिमी मीडिया ने रेखांकित किया कि भारत और चीन के बीच अंतरिक्ष में होड़ शुरू होनेवाली है. ऐसी होड़ साठ के दशक में अमेरिका व सोवियत संघ के बीच चली थी. ‘स्पेस रेस’ शब्द तभी गढ़ा गया था, जो अब भारत-चीन के संदर्भो में इस्तेमाल हो रहा है. भारत की तुलना अकसर चीन से की जाती है. माना जा रहा है कि 21वीं सदी इन दोनों देशों की है.
अंतरिक्ष कार्यक्रमों के मामले में चीन हमसे आगे है. उसका बजट भी हमसे बड़ा है. ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओइसीडी) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2013 में अमेरिका ने अंतरिक्ष अनुसंधान पर 40 अरब डॉलर की रकम लगायी, वहीं चीन ने 11 अरब डॉलर. तीसरे नंबर पर रूस था, जिसने 8.6 अरब डॉलर खर्च किया. चौथा नंबर भारत का था, जिसने 4.3 अरब डॉलर की राशि अंतरिक्ष कार्यक्रम पर खर्च की. केवल पैसा ही सफलता का आधार नहीं है. हाल के दिनों में चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात को साबित करती हैं. चीन का अंतरिक्ष कार्यक्रम एक ओर युद्ध-तकनीक से जुड़ा है, वहीं वह असैनिक तकनीक का विकास भी कर रहा है. भारत के मुकाबले चीन के पास ज्यादा भार ले जानेवाले रॉकेट हैं और उसका अपना स्पेस स्टेशन तैयार हो रहा है. वह अंतरिक्ष में मानव-युक्त उड़ान संचालित कर चुका है और संभवत: 2020 तक चंद्रमा की सतह पर भी अपना यात्री उतार देगा. अंतरिक्ष में उपग्रहों को नष्ट करने की तकनीक का परीक्षण कर उसने सैनिक इस्तेमाल में महारत भी हासिल कर ली है.
अक्तूबर के अंतिम सप्ताह में चीन ने अपना मानव रहित यान चंद्रमा की ओर भेजा था, जो एक नवंबर को सफलतापूर्वक वापस आ गया. इस तकनीक में वह रूस और अमेरिका के बाद तीसरा देश बन गया है. इस परीक्षण यान का मकसद चंद्रमा की कक्षा में जाकर धरती पर लौटने की क्षमता का आकलन करना था. यह आठ दिन का अभियान था. अब चीन 2020 तक चंद्रमा पर मानव-युक्त अभियान भेजने की तैयारी में है.
चीन के बरक्स भारत की उपलब्धियां छोटी, पर काफी महत्वपूर्ण हैं. मंगलयान की सफलता खासतौर से उल्लेखनीय है, क्योंकि जापान और चीन इस काम में सफल नहीं हो पाये. भारत अब अंतरिक्ष में मानव-युक्त उड़ान की तैयारी कर रहा है. इसरो को उम्मीद है कि भारत का पहला ‘व्योमनॉट’ 2016 में उड़ान भर सकेगा. भारत ने वह यान तैयार कर लिया है, जिसमें बैठ कर यात्री अंतरिक्ष में जायेगा. इसमें दो यात्रियों के बैठने की जगह है. जल्द ही इस मॉड्यूल का जीएसएलवी पर रख कर वास्तविक परीक्षण होगा. जनवरी, 2007 में 600 किलोग्राम वजन के इस मॉड्यूल का एक परीक्षण हो चुका है. पीएसएलवी-सी-7 रॉकेट की मदद से इसे धरती की कक्षा में स्थापित किया गया था. 12 दिन अंतरिक्ष में रहने के बाद यह कैपस्यूल धरती पर वापस आया था. इसे स्पेस कैपस्यूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट (एससीआरई-1) का नाम दिया गया है.
संभावना है कि 2020 में जब चीन अपना यात्री चंद्रमा पर भेजेगा, उसी के आसपास या पहले ही भारत का यात्री भी वहां जा चुका होगा.
गत 16 अक्तूबर को श्रीहरिकोटा प्रक्षेपण केंद्र से भारत ने अपने नेवीगेशन उपग्रह आइआरएनएसएस-1सी को पृथ्वी की निर्धारित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया. सात उपग्रहों की श्रृंखला में यह तीसरा उपग्रह है. ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम का इस्तेमाल हवाई और समुद्री यात्रओं के अलावा सुदूर इलाकों से संपर्क रखने में होता है. इसकी काफी जरूरत सेना को है. खासतौर से मिसाइल प्रणालियों के वास्ते. इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण काम है वायुमार्ग की दिशासूचक प्रणाली ‘गगन’ को चालू करना. ‘गगन’ का पूरा नाम है जीपीएस एडेड जियो ऑगमेंटेड नेविगेशन. यह प्रणाली भारतीय आकाश मार्ग से गुजर रहे विमानों के पायलटों को तीन मीटर तक का अचूक दिशा ज्ञान देगी. मंगलयान की सफलता के बाद भारत का चंद्रयान-2 कार्यक्रम तैयार है. 2015 या 16 में हमारा आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा. हमारे वैज्ञानिक हाइपर सोनिक स्पेसक्रॉफ्ट के कार्यक्रम पर भी काम कर रहे हैं.
नेविगेशन प्रणाली के सभी सात उपग्रहों को 2015 के अंत तक पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया जायेगा. इसके व्यावसायिक पहलू भी हैं. भारत ने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ इसकी संभावनाओं पर बात भी शुरू कर दी है. चीन की बेइदू नेविगेशन व्यवस्था पिछले 15 वर्षो से काम कर रही है. उसके मुकाबले भारतीय नेविगेशन व्यवस्था अभी आकार ही ले रही है. दोनों की उपग्रहीय व्यवस्थाओं में बड़ा फर्क है. भारत की प्रणाली सात उपग्रहों पर केंद्रित है, जबकि चीन के पास करीब 20 उपग्रह हैं. हमारी प्रणाली दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और सुदूर पूर्व तक काम करेगी. अमेरिकी जीपीएस, रूसी ग्लोनास, चीनी बेइदू और यूरोपीय व्यवस्था गैलीलियो भू-मंडलीय प्रणालियां हैं. छोटा होना भारतीय व्यवस्था के लिए लाभकारी है, क्योंकि वह भू-मंडलीय व्यवस्थाओं के मुकाबले सस्ती होगी. इलाके के तमाम देशों की जरूरतें ज्यादा बड़ी नहीं हैं. इसी वजह से वह बाजार में लोकप्रिय हो सकती है.
भारतीय नेविगेशन व्यवस्था ‘गगन’ की योजना वैश्विक स्तर पर भी सेवाएं उपलब्ध कराने की है. इसके लिए वह ‘ग्लोनास’ और बेइदू के साथ सहयोग कर सकती है. रूसी और चीनी नेविगेशन व्यवस्थाओं के साथ सहयोग ‘गगन’ को उपभोक्ताओं के बीच लोकप्रिय बना देगा और वह एशियाई-प्रशांत क्षेत्र में सफल होगा. चीनी नेविगेशन प्रणाली का इस्तेमाल पाकिस्तान, थाइलैंड, लाओस, ब्रूनेई और म्यांमार कर रहे हैं. जापान का क्वाजी जेनिट सैटेलाइट सिस्टम भी इसमें शामिल होनेवाला है. इसरो की बहुप्रतीक्षित बड़ी परियोजना है जीएसएलवी मार्क-3. यह रॉकेट चार टन से ज्यादा उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करेगा. इस प्रक्षेपण के बाद ही हम दूसरे ग्रहों की यात्र के बारे में सोच सकते हैं.
अलबत्ता, हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के देशों के लिए भारतीय उपग्रह की बात कही थी. यह प्रस्ताव आकर्षक है. भारत ने अपने इलाके के देशों के साथ बेहतर रिश्ते बनाने में स्पेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं. परिणाम यह है कि श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश भी चीन की ओर देख रहे हैं. पाकिस्तान तो चीनी मदद के सहारे चलता ही है. इन देशों को संचार, सुदूर संवेदन, मौसम की जानकारी और अन्य उपयोगों के लिए स्पेस टेक्नोलॉजी चाहिए. यह काम हम आसानी से कर सकते हैं. इसे रेस कहें या सहयोग, भारत और चीन की प्रतियोगिता से दोनों देश काफी कुछ नया हासिल करते रहेंगे.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
pjoshi23@gmail.com