।। प्रो अरुण कुमार ।।
(अर्थशास्त्री, जेएनयू)
देश में कुछ छोटे राज्यों ने विकास के पैमाने पर अच्छा प्रदर्शन किया है. इसे देखते हुए बहुत-से लोगों को लगता है कि राज्य का आकार छोटा होने पर ही विकास सही तरीके से होगा. लेकिन हकीकत यह है कि विकास छोटे और बड़े आकार पर निर्भर नहीं करता है. विकास वहां की सरकारों की नीतियों और उनके समुचित क्रियान्वयन से होता है. साथ ही, शासन किस तरह का है, यह विकास के लिए काफी मायने रखता है.
झारखंड का गठन भी इस आधार पर किया गया था कि वहां मौजूद संसाधनों के आधार पर राज्य त्वरित विकास करेगा. लेकिन मौजूदा हालात को देख कर कहा जा सकता है कि झारखंड में विकास की बजाय भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है. इसके लिए वहां का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार रहा है. गठन के बाद से ही वहां कभी कोई मजबूत सरकार नहीं बन पायी. इसके कारण वहां मौजूद संसाधनों का उपयोग राज्य के विकास की बजाय निजी हितों को साधने के लिए किया जाता रहा है.
हालांकि, समूचे देश में ही विकास असमान ढंग से हुआ है. कुछ क्षेत्रों में संसाधनों की उपलब्धता नहीं होने के बावजूद विकास हुआ और कहीं संसाधन की मौजूदगी के बावजूद भी विकास नहीं हो सका. इसका प्रमुख कारण है विकास में निजी क्षेत्रों की बढ़ती भूमिका. निजी क्षेत्र कभी भी बिना फायदे के निवेश नहीं करता है. योजना आयोग और वित्त आयोग ने विभिन्न पहलों के माध्यम से पिछड़े इलाकों में निवेश के जरिये विकास कराने की कोशिश की, लेकिन निजी क्षेत्र ऐसे इलाकों में निवेश नहीं करना चाहते हैं. यह प्रक्रिया वर्ष 1991 के बाद तेज हुई है. विकास के लिए निजी क्षेत्रों पर बढ़ती निर्भरता और सरकार की उदासीनता के कारण पिछड़े इलाकों में विकास की गति प्रभावित हुई है.
यह स्थिति विकसित राज्यों में भी दिखाई देती है. विकसित राज्यों के कुछ क्षेत्र विकास के पैमाने पर काफी आगे है, जबकि कुछ इलाकों में मूलभूत सुविधाएं भी लोगों को नहीं मिल पा रही है. जैसे, महाराष्ट्र में ही विदर्भ का इलाका काफी पीछे है, उत्तर प्रदेश में पश्चिमी इलाकों के मुकाबले पूर्वी क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है. असमान विकास के कारण ही राज्यों के भीतर नये राज्यों के गठन की मांग उठ रही है. इन क्षेत्रों को लगता है कि नये राज्य बनने के बाद ही उनके इलाके सही विकास हो सकता है.
नये राज्यों के गठन के पीछे दूसरी महवपूर्ण वजह है राजनीति. क्षेत्रीय नेता सोचते हैं कि नये राज्य बनने के बाद वे अपने इलाके के प्रभावशाली नेता बन सकते हैं. लेकिन झारखंड के मौजूदा हालात को देखकर कहा जा सकता है कि विकास के लिए सिर्फ क्षेत्र विशेष पर प्रभाव हासिल करने की बजाय संसाधनों के बेहतर उपयोग की सोच होनी चाहिए.
झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड विकास के मामले में आगे हैं. लेकिन इन राज्यों का भी समग्र विकास नहीं हो पाया है. आज छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा शिक्षण संस्थान खुल गये हैं, लेकिन इन संस्थानों की गुणवत्ता किसी मायने में स्तरीय नहीं है. इस तरह का विकास ठीक नहीं है. इसका नुकसान गरीबों को उठाना पड़ रहा है. इसमें समस्या छोटे और बड़े राज्यों की नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों का सही तरीके से पालन करने और विकास के लिए दीर्घकालिक नीतियां बनाने की है.
झारखंड में पिछले 15 सालों में जिस प्रकार सत्ता हथियाने का खेल चला है, उसका खामियाजा राज्य के आम लोगों को उठाना पड़ रहा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद झारखंड असफल राज्यों की कतार में शामिल हो गया है. मेरा मानना है कि झारखंड जैसे पिछड़े इलाके में समग्र विकास की नीतियों को अपनाने की जरूरत है. असमान विकास से गरीबी बढ़ती है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. अगर शासन ही सही नहीं है, तो प्रदेश की दुर्दशा तय है. हमें विकास की बजाय इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि हमारा नेतृत्व कैसा है और क्या वह समाज में समानता और सामाजिक न्याय बहाल करने के प्रति वचनबद्ध है या उसका उद्देश्य अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति तक ही सीमित है. झारखंड समेत समूचे देश में इस बात पर बहस की बड़ी जरूरत है.
राजनीतिक नेतृत्व की सोच व दिशा, विकास की गति व स्वरूप तथा नीतियों की रूप-रेखा क्या है और क्या होनी चाहिए, यह हमारे राजनीतिक विमर्श की मुख्य चिंता होनी चाहिए.
(बातचीत पर आधारित)