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चुनाव नतीजों के राजनीतिक संदेश

बिहार समेत चार राज्यों की 18 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों में गहरे राजनीतिक ‘संदेश’ और भविष्य की राजनीति की दिशा के ‘संकेत’ हैं. बिहार में भाजपा को दो सीटों का नुकसान हुआ. कर्नाटक में सत्तारूढ़ कांग्रेस के आगे वह पिछड़ गयी. मध्यप्रदेश में सीटों का उलटफेर हुआ और पंजाब में कांग्रेस व अकाली […]

बिहार समेत चार राज्यों की 18 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों में गहरे राजनीतिक ‘संदेश’ और भविष्य की राजनीति की दिशा के ‘संकेत’ हैं. बिहार में भाजपा को दो सीटों का नुकसान हुआ. कर्नाटक में सत्तारूढ़ कांग्रेस के आगे वह पिछड़ गयी.

मध्यप्रदेश में सीटों का उलटफेर हुआ और पंजाब में कांग्रेस व अकाली दल बराबरी पर रहे. उपचुनाव का राजनीतिक महत्व इस मायने में खास था कि तीन माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए ने इन चारों राज्यों में अपने विरोधी गंठबंधनों को करारी शिकस्त दी थी. तब यह मान लिया गया था कि नरेंद्र मोदी के जादू के आगे बाकी दलों के लिए फिलहाल कोई स्पेस नहीं दिख रहा.

लेकिन, उपचुनाव के परिणाम इस धारणा के विपरीत निकले. पिछले दिनों, उत्तराखंड के उपचुनाव में भी कांग्रेस तीनों सीटें जीतने में सफल रही थी. बिहार की दस सीटों का उपचुनाव जदयू, राजद व कांग्रेस के ‘महागंठबंधन’ की परीक्षा थी. जेपी आंदोलन की धारा से निकले और फिर 90 के दशक में मंडलवाद की राजनीति से चमके लालू प्रसाद और नीतीश कुमार करीब 20 साल बाद इस मूल तर्क के साथ उपचुनाव में साथ आये थे कि वर्तमान समय सांप्रदायिकता के खिलाफ समाजवादी व मंडलवादी ताकतों के एकजुट होने का है. उनके महागंठबंधन को दस में से उन छह सीटों पर सफलता मिली, जिनमें लोकसभा चुनाव (2014) में एनडीए ने बढ़त ली थी. सफलता का असर उन राज्यों पर पड़ेगा, जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं. परिणाम ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने चुनौती पेश की है, तो राजद, जदयू, कांग्रेस के महागंठबंधन को भी कार्यभार सौंपा है.

अगले साल होने वाले चुनावों को केंद्र में रख भाजपा को यह समझना होगा कि सिर्फ और सिर्फ मोदी के जादू के बूते लंबी दूरी की दौड़ नहीं जीती जा सकती है. समय सीमा के भीतर वायदों को पूरा करना होगा और जनता के हित में ठोस एजेंडा भी सामने रखना होगा. जदयू, राजद और कांग्रेस के सामने महागंठबंधन को दूसरे राज्यों में विस्तार देने और इसे जमीनी स्तर पर मजबूत करने का भी बड़ा कार्यभार है. सिर्फ भाजपा के खतरे को आगे कर एकता की बजाय समाजवादी धारा की राजनीति को केंद्र में रख कर बिहार के विकास का ठोस एजेंडा भी जनता के सामने रखना होगा.

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