प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण के वक्त दक्षेस नेताओं को न्यौत कर नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया था कि उनकी राजनीति सुलह और सहयोग के जरिये दक्षिण एशिया में शांति व समृद्धि का एक नया अध्याय लिखने की होगी. मोदी का यह संदेश वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के हिसाब से सामयिक और दक्षिण एशिया को एक आर्थिक ताकत के रूप में उभारने के लिहाज से भविष्योन्मुखी था.
परंतु ऐसे भविष्योन्मुख संदेश पर खुले दिलो-दिमाग से विचार करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकि इसके लिए इतिहास की नकारात्मक परछाइयों को अपने मन से दूर करना पड़ता है. इतिहास गवाह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान चाहे सेना के प्रमुख रहे हों या चुन कर आनेवाले, अपने शासन के औचित्य को सही साबित करने के लिए भारत-विरोधी भावना का सहारा लेते रहे हैं. इतिहास की इन नकारात्मक परछाइयों से उबरने और पड़ोसी देशों के साङोपन से बननेवाले एक खुशहाल दक्षिण एशिया की राह पर चलने में पाकिस्तान हमेशा अपने को नाकाम पाता है. इस बार भी यही हुआ. पाक की तरफ से घुसपैठ या अकारण सैन्य गोलीबारी की इस साल करीब 50 घटनाएं हो चुकी हैं.
ऐसे में नवाज शरीफ के साथ हुई बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए 25 अगस्त से प्रस्तावित सचिव स्तर की वार्ता का भविष्य पहले ही बहुत उजला नहीं दिख रहा था. इस वार्ता की राह में अड़चन पैदा करने के लिए उकसावे की एक और कोशिश पाकिस्तान ने की. दिल्ली स्थित पाक उच्चायुक्त ने भारत सरकार के विरोध के बावजूद कश्मीरी अलगाववादियों के एक प्रमुख नेता से मुलाकात की. कश्मीर में जारी पाक-प्रेरित आतंकवाद का मसला दोनों देशों के संबंधों के बीच हमेशा ही तनाव का बिंदु रहा है.
ऐसे में, पाक उच्चायुक्त की यह हरकत तनाव बढ़ानेवाला कदम ही माना जायेगा. भारत ने इसे अपने अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप करार देते हुए विरोध स्वरूप वार्ता से हाथ खींच लिये हैं. संदेश साफ है, दोस्ती की कोई भी कोशिश बराबरी के धरातल पर ही सफल हो सकती है. दोस्ती के लिए बढ़े हाथ को पाकिस्तान ने अकसर भारत की लाचारी का लक्षण समझा है. ऐसे में सचिव-स्तर की वार्ता से इनकार कर भारत ने पाकिस्तान को सटीक जवाब दिया है कि हमारी उदारता और सब्र का बार-बार इम्तिहान लेने से बाज आओ!