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जिस देश में गंगा बहती थी
संतोष उत्सुक वरिष्ठ व्यंग्यकार santoshutsuk@gmail.com मैं पुरानी कार की सर्विस के लिए गया, तो मुझे चाय पीने का मन हुआ. लेकिन लंच का समय होने के कारण कोई खाना बनानेवाला चाय बनाने को तैयार नहीं हुआ. औद्योगिक क्षेत्र में अनेक जगह उपलब्ध गरमा-गरम भटूरे छोले खाते लोगों को देखकर लगा कि यह इंडिया के फिट […]
संतोष उत्सुक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
santoshutsuk@gmail.com
मैं पुरानी कार की सर्विस के लिए गया, तो मुझे चाय पीने का मन हुआ. लेकिन लंच का समय होने के कारण कोई खाना बनानेवाला चाय बनाने को तैयार नहीं हुआ. औद्योगिक क्षेत्र में अनेक जगह उपलब्ध गरमा-गरम भटूरे छोले खाते लोगों को देखकर लगा कि यह इंडिया के फिट रहने में सचमुच कितना योगदान दे रहे हैं.
एक मजदूर ने दूर इशारा कर बताया कि वहां मिलेगी चाय. शहतूत के पेड़ के नीचे, काले फटे हुए पॉलीथिन की छत के साथ लटके पुराने बैनर के गंदे टुकड़े, सड़े हुए कनस्तर के साथ बने काउंटर पर चाय बनती थी. दुकान वाला बच्चा भागकर कहीं से दूध लेकर आया, खूब उबालकर उसने प्लास्टिक की ग्लास में ही चाय मेरे हाथ में पकड़ा दी. पाॅलीथिन की विकल्पहीनता यहां भी पसरी हुई मिली.
वहां गमले में मिर्च के पौधे उगे हुए थे. रोशनी के लिए बल्ब भी लटक रहा था. चाय अच्छी बनी थी. मैं आराम से पीने लगा. कहीं दूर से पुरानी फिल्म, जिस देश में गंगा बहती है, का गाना कानों में धीरे-धीरे घुलने लगा. कभी बचपन में लोक संपर्क विभाग वालों ने सार्वजनिक मैदान में पर्दा टांग कर यह फिल्म दिखायी थी हमें. गाना जो मेरे कानों ने वास्तव में महसूस किया, कुछ ऐसा रहा कि होठों पर ही झुठाई रहती है हमारे दिल में सच की पिसाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहुत साफ रहा करती थी, जैसा लगने लगा. मैंने महसूस किया कि हां हम उसी देश के वासी हैं, जिसमें हमने जी भरकर गंदगी फैलायी है.
मधुर संगीत वाला गीत भी अब प्रदूषित होकर अस्पष्ट सुन रहा था. कभी जो मेहमान हमारा होता था, वह जान से प्यारा होता था. लेकिन अब तो वही मेहमान हमारा होता है, जिसे अपनी जान प्यारी न हो. अब हमें ज्यादा की जरूरत है, क्योंकि हम लालचियों का थोड़े में गुजारा नहीं होता है. हम स्वार्थियों का पेट नहीं भरता है. और पेट भर भी जाये, तो मन नहीं भरता.
हम गंदे ‘बच्चों’ ने उसी धरती मां का हाल बेहाल कर दिया है, जिसने सदियों से इतना कुछ मुफ्त में दिया है. करोड़ों बार नारे लगाने, लाखों सेमिनार करवाने, अरबों भाषण देने के बाद और विज्ञापनों की गंगा बहाने के बाद भी अनगिनत जगह बिखरा पड़ा कूड़ा-कर्कट दिखने लगा था मुझे.
ऐसा लग रहा था जैसे गंदे, फटे हुए कपड़े पहने, स्वादिष्ट चाय बेचनेवाला वह बच्चा, मेरे सामने हाथ उठाकर, पंजे हिलाकर गा रहा है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती थी. मानो वह चीख-चीखकर गाये जा रहा था.
कुछ पढ़े-लिखे लोग जो ज्यादा जानते हैं, वे दूसरों को इंसान नहीं मानते हैं. वह आज का सच गा रहा था. यह पूरब है पूरब वाले अब हर जान की ‘कीमत’ जानते हैं. उस गाने का संदेश अब राजनीतिक लगने लगा था, बच्चा अब राजनीतिज्ञ की तरह चीख रहा था, मिलजुल के रहो और राज करो, एक चीज यही सफल रहती है, हम उस देश के वासी थे, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती थी.
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