2010 से लेकर अब तक किस दल के नेता, परमाणु व उपग्रह कार्यक्रमों के वैज्ञानिक, बड़े उद्योगपतियों और नौकरशाहों का अमेरिका, और दूसरे विदेशी ठिकानों पर आना-जाना रहा है, उसकी ठीक से जांच हो, तो बड़े खुलासे हो सकते हैं.
भरत चाहे जितना प्रतिरोध कर ले, लेकिन अमेरिका जासूसी से बाज नहीं आनेवाला. इसके कुछ कानूनी प्रावधान हैं, जिनके बगैर उन्हें रोकना संभव नहीं है. इस सवाल पर बवाल मचा हुआ है कि 2010 में भाजपा की जासूसी, अमेरिकी खुफिया एनएसए (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी) ने क्यों करायी. एडवर्ड स्नोडेन के ताजे खुलासे के अनुसार, 2010 में अमेरिका की ‘फॉरेन इंटेलीजेंस सर्विलांस कोर्ट’ ने दुनिया की 193 सरकारों, और भाजपा जैसी कुछ पार्टियों की खुफियागिरी करने की अनुमति ‘एनएसए’ को दी थी. यह अमेरिकी दादागिरी का ताजा नमूना है.
जर्मनी, लगातार आग्रह कर रहा है कि अमेरिका उससे जासूसी न करने की संधि (नो स्पाइ एग्रीमेंट) कर ले. लेकिन अमेरिका है, कि मानता नहीं. पहले बराक ओबामा ने दो टूक कह दिया था कि हम किसी के साथ ‘नो स्पाई एग्रीमेंट’ नहीं कर रहे, बल्कि ‘साइबर डायलॉग’ पर बैठकें करते रहेंगे. लेकिन अब पता चल रहा है कि अमेरिका की ‘फॉरेन इंटेलीजेंस सर्विलांस कोर्ट’ ने ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड को छोड़ कर बाकी देशों की जासूसी करने का आदेश दिया है.
ये चारों अंगरेजी भाषी देश अमेरिका के साथ मिल कर पांच आंखें ‘एफवीइवाइ’ के नाम से जाने जाते हैं. इनके बीच खुफिया सहयोग के लिए ‘सिगनल इंटेलीजेंस’ संधि हो चुकी है. एनएसए के लिए कभी ठेके पर कंप्यूटर सिस्टम ऑपरेटर का काम करनेवाले एडवर्ड स्नोडेन किस्तों में सनसनी पैदा करते हैं. इसका उद्देश्य क्या यह नहीं हो सकता कि भाजपा नेताओं की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों में किरकिरी पैदा की जाये? स्नोडेन साल भर से रूस में शरण लिये हुए है. उसकी वीजा अवधि जल्द समाप्त होनेवाली है. उसे आगे के लिए वीजा चाहिए, तो रूस चाहेगा कि स्नोडेन जैसे मोहरे से अमेरिका को उलझाने के लिए कुछ ऐसे खुलासे कराये. संभव है, स्नोडेन कुछ दिनों में यह खुलासा करे कि भारत की दूसरी बड़ी पार्टियों के नेताओं, उद्योगपतियों और परमाणु-अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुड़े लोगों की खुफियागिरी की अनुमति अमेरिकी अदालत से मिली हुई थी. अमेरिकी कोर्ट किसी दूसरे देश में जासूसी करने की इजाजत दे, इसका क्या अर्थ होता है? भारत सरकार ने अमेरिका के प्रभारी राजदूत को बुला कर विरोध दर्ज करा दिया है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो विरोध भी नहीं दर्ज कराया कि उनकी खुफियागिरी क्यों की गयी थी.
सवाल बनता है कि जब 193 सरकारों की खुफियागिरी, एनएसए को करनी थी, तो उन देशों की राष्ट्रीय पार्टियां, जासूसी की परिधि से कैसे बाहर हो सकती हैं? यह कैसे संभव है कि यूपीए सरकार के सहयोगी दलों, और विपक्ष के नेताओं की खुफियागिरी नहीं की गयी हो? क्या एनएसए ने भारतीय अर्थजगत, प्रतिरक्षा व अनुसंधान से जुड़े लोगों की जासूसी नहीं की होगी? जब सरकार को नहीं बख्शा, तो इस देश के मोबाइल यूजर, इंटरनेट उपभोक्ता कैसे बच सकते हैं? मतलब, इस देश के आम आदमी के संदेशों की मॉनिटरिंग से अमेरिका को आभास हो गया था कि किसकी सरकार बनने जा रही है. चुनाव से पहले गांधीनगर में अमेरिका और पश्चिमी राजनयिकों की आवाजाही पर फिर से गौर कीजिए, तो यह शक, यकीन में बदल जाता है.
हमारी खुफिया संस्थाओं को शायद जानकारी हो कि मनमोहन सिंह और यूपीए नेताओं की बातचीत का पता करने के लिए ‘प्रिज्म’, ‘टैम्पोरा’, ‘एक्स कीस्कोर’, ‘मस्कुलर’, ‘एफएएससीआइए’ जैसी तकनीक अमेरिका के पास उपलब्ध है. स्नोडेन की मानें, तो ‘एक्स कीस्कोर’ उपकरण नयी दिल्ली के अमेरिकी दूतावास में लगा है, जिससे पूरे हिमालय क्षेत्र में मोबाइल से लेकर इमेल तक से भेजे जाने संदेशों को जाना जा सकता है.
भारत में कितने लोग अमेरिकी खुफिया सीआइए, एफबीआइ और एनएसए के लिए काम कर रहे हैं? यह खोज का विषय है. क्या अब भी हम विकीलिक्स या स्नोडेन के नये खुलासे का इंतजार करेंगे, और तभी भरोसा करेंगे कि वास्तव में हमारी नाक के नीचे, हमारी जासूसी हो रही है? कहना मुश्किल है कि सत्ता के गलियारे में सक्रिय कौन सी पार्टी का राजनेता, शीर्ष नौकरशाह ‘विभीषण’ का काम कर रहा है. इस देश में सिर्फ ‘एक्स कीस्कोर’ से ही जासूसी नहीं हो रही है. 2010 से लेकर अब तक किस दल के नेता, परमाणु व उपग्रह कार्यक्रमों के वैज्ञानिक, बड़े उद्योगपतियों और नौकरशाहों का अमेरिका, और दूसरे विदेशी ठिकानों पर आना-जाना रहा है, उसकी ठीक से जांच हो, तो बड़े खुलासे हो सकते हैं. हमारी सुरक्षा एजेंसियां क्या अमेरिकी खुफियागिरी को रोकने में सक्षम हैं? इस सवाल का उत्तर सरकार ही दे सकती है. यदि अमेरिका को जासूसी करने से रोकना है, तो उससे ‘नो स्पाइ एग्रीमेंट’ के अलावा और क्या विकल्प है?
पुष्परंजन
ईयू एशिया न्यूज के
नयी दिल्ली संपादक
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