मोदी सरकार के गठन के पांच सप्ताह के भीतर ‘अच्छे दिन’ का मुहावरा ‘कड़े फैसले’ के मंत्र में बदल गया है. अब तक लिये गये आर्थिक निर्णयों से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि महंगाई पर नियंत्रण के लिए सरकार के पास कोई ठोस रणनीति है. रेल किराये तथा तेल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी और खाद्य-वस्तुओं की महंगाई के पीछे सरकार के तर्क यही साबित कर रहे हैं कि या तो वह परिस्थितियों के आगे लाचार है या उसका मार्गदर्शक बाजार है.
अगले सप्ताह पेश हो रहे मोदी सरकार के बजट से उसकी आर्थिक नीतियां स्पष्ट होंगी, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान से यही अंदाजा होता है कि सरकार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों पर चलते हुए वित्तीय सुधारों की गति तेज करेगी. जेटली के अनुसार, उनका बजट ‘विचारहीन लोकलुभावन’ नहीं होगा और उनका इरादा ‘कड़े फैसले’ लेने का है, ताकि अर्थव्यव्स्था को पटरी पर लाया जा सके. इसमें दो राय नहीं है कि मुद्रास्फीति के बढ़ने, इराक संकट की वजह से तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि व खराब खाद्य प्रबंधन के कारण पहले से लचर आर्थिक स्थिति पर बोझ बढ़ा है. साथ ही कमजोर मॉनसून के कुपरिणामों को लेकर भी चिंता है.
यह भी सच है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में कुछ फैसले जरूरी हैं, पर ‘लोकलुभावन’ नीतियों से परहेज का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में सरकारी खर्च की राशि न बढ़ायी जाये और कल्याणकारी योजनाओं को समेट लिया जाये. मुक्त व्यापार का दायरा बढ़ाने और विदेशी निवेश के लिए बंद क्षेत्रों को खोलने के फैसले जल्दबाजी में नहीं लिये जाने चाहिए. फायदा अच्छी बात तो है, जैसा कि जेटली देश को समझाना चाह रहे हैं, लेकिन उन्हें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि देश की बड़ी औद्योगिक कंपनियों के पास सरकार की भारी रकम बकाया है और आर्थिक वृद्धि के नाम पर कॉरपोरेट सेक्टर ने अनेक बेजा छूटों का भी लाभ उठाया है.
जेटली इस अवसर का उपयोग उदारीकरण के दो दशकों के नफा-नुकसान के आकलन के लिए भी कर सकते हैं. कोई भी बजट देश की बड़ी जनसंख्या के हित में होना चाहिए. फैसले के कठोर व नरम होने की एकमात्र शर्त बस यही होनी चाहिए.