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आओ हे नववर्ष!
कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com कैलेंडर बदलने से जिनका नया साल अाता है, उन्हें उनका नया साल मुबारक! लेकिन कपड़े बदलने से अादमी कब, कहां नया हुअा है. अाप देखें कि प्रकृति भी, उसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेते, वसंत उतरता […]
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
कैलेंडर बदलने से जिनका नया साल अाता है, उन्हें उनका नया साल मुबारक! लेकिन कपड़े बदलने से अादमी कब, कहां नया हुअा है.
अाप देखें कि प्रकृति भी, उसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेते, वसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहीं, अौर खोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचने, करने अौर बनने से रोकता है?
क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन छोड़ जाती है? ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है अौर हमारा जन अकेला भी अौर निरुपाय भी होता जाता है? अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है?
नये साल की दहलीज पर खड़े हैं हम तो जरा बीतते वर्ष के करीब चलें. दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों ने कागजों पर कितनी ही बड़ी अौर कल्याणकारी योजनाएं लिखीं, बनायी अौर सफल भी कर ली हैं, लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है.
हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारे अौर हमारों के हालात बदलें अौर शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती है, चढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैं, यह जाता हुअा साल भी तो अभी-अभी, बारह माह पहले ही नया-नया अाया था! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया? जवाब में लिखा है किसी ने : ‘पूत के पांव/ पालने में मत देखो/ वह अपने पिता के/ फटे जूते पहनने अाया है…’ तो पिता के जूते फटे ही क्यों होते हैं? अौर क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को अौर वह बच्चा अपने बच्चे को ऐसा लंबा सिलसिला देता है? नहीं, जूते नहीं, हमारे मन फटे हैं! इसकी सिलाई करनी है.
चादर हो कि मन कि समाज, सभी अनगिनत धागों से मिलकर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है- दिखती नहीं है, लेकिन बांधे रखती है. लेकिन, चादर हो कि मन हो कि समाज हो, बस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है.
लगता है कि अभी जो साकार था, मजबूत था अौर बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था, वह नकली था, कमजोर था अौर दिखावटी था. जो बिखर सकता है, टूट सकता है, उसे संभालने की विशेष जुगत करनी पड़ती है! गालिब तो कब के कह गये हैं : ‘दिल ही तो नहीं संगो-खिश्त, दर्द से भर न अाये क्यूं/ रोयेंगे हम हजार बार, कोई हमें रुलाये क्यों.’
यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक अौर मनमौजी है कि कहीं भी, किसी से भी चोट खा जाता है, तो उसे चोट पहुंचाने का कोई अायोजन होना ही नहीं चाहिए; अौर ऐसा कोई कुफ्र हो ही गया हो, तो हजारों-हजार लोग, लाखों-लाख हाथ-पांव लेकर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं है, एक मानवीय कर्तव्य भी है, हमारे मनुष्य होने की निशानी है. न कोई जाति, न कोई धर्म, न कोई भाषा, न कोई प्रांत, न कोई देश, न कोई विदेश, न कोई काला, न कोई गोरा, न कोई अमीर, न कोई गरीब.
बस इनसान! …यही नया है. यह नया मन है. हमारे मन में उमगी यह नयी कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं अौर इतने करीब अा गये हैं कि कामना भी करेंगे, तो जय जगत की करेंगे. जगत की जय नहीं होगी, तो अकेले हिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं अौर काम्य भी नहीं अौर जगत की जय होती है, तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समायी हुई है.
यह नया साल (2019) सच में नया हो जायेगा, यदि इस साल हम एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करेंगे. अापसी संवाद लोकतंत्र की अाधारभूत शर्त है. ‘संवाद करो अौर विश्वास करो’, यह नये साल का हमारा नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद अौर विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे, उतना नजदीक अायेंगे, जितनी बातचीत करेंगे, उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है, जिसके काटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है अौर अविश्वास की खुराक पर पलता है.
इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं, उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे अौर वहां संवाद की गलियां बनायेंगे. सरकार कश्मीर में वार्ता करे या न करे, कश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिए. कश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिए, कश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए.
हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है अौर उसके जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न! हां, मरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिर इनसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी? टूटेगा तो मरम्मत करेंगे! हमें छत्तीसगढ़ के माअोवादियों के बीच, पूर्वांचल के अलगाववादियों के बीच, राममंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीच, हाशिमपुरा-बुलंदशहर के अांसुअों के बीच, लगातार-लगातार जाना है, क्योंकि इसके बिना हम कैलेंडर कितने भी बदल लें, कोई भी साल नया नहीं हो सकेगा.
एक नया साल 1932 में अाया था अौर गांधीजी ने किसी को लिखा था: ‘देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो! जिससे न बोले हो, उससे बोलो; जिससे न मिले हो, उससे मिलो, जिसके घर न गये हो, उसके घर जाअो. यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है अौर हम देनदार हैं.’ साल 1932 का नया साल 2019 में भी हमारी राह देख रहा है, क्योंकि इतने वर्ष बीत गये, नया साल तो अाया ही नहीं!
सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह!
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