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सीबीआइ की छवि बचाना जरूरी
शांतनु सेन पूर्व ज्वॉइंट डायरेक्टर, सीबीआइ delhi@prabhatkhabar.in भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) के दो वरिष्ठतम अधिकारियों- आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना- के बीच का विवाद भारत की इस सबसे बड़ी जांच एजेंसी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो है, लेकिन अब भी सीबीआइ एक भरोसेमंद जांच एजेंसी है, इसमें जरा भी शक नहीं […]
शांतनु सेन
पूर्व ज्वॉइंट डायरेक्टर, सीबीआइ
delhi@prabhatkhabar.in
भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) के दो वरिष्ठतम अधिकारियों- आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना- के बीच का विवाद भारत की इस सबसे बड़ी जांच एजेंसी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो है, लेकिन अब भी सीबीआइ एक भरोसेमंद जांच एजेंसी है, इसमें जरा भी शक नहीं है. राजनीतिक पार्टी के लोगों ने सीबीआइ के लिए गाहे-ब-गाहे जिस तरह की शब्दावलियों का इस्तेमाल किया है, वह उचित नहीं था, न है.
सीबीआइ को भला-बुरा कहना न सिर्फ सीबीआइ के लिए अनुचित, बल्कि इसके द्वारा किये गये बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के पर्दाफाश का भी मजाक बनाना है. ऐसी चीजों से हम सभी को बचना चाहिए. बहरहाल, सीबीआइ के प्रमुख आलोक वर्मा को और सीबीआइ के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को हटाकर सरकार ने अच्छा कदम उठाया है.
अब सीबीआइ के ज्वॉइंट डायरेक्टर के पद पर काम कर रहे एमएन राव को इसकी जिम्मेदारी दे दी गयी है. मैं तो पहले से ही यह कहता आ रहा हूं कि सबसे पहले इन अधिकारियों को प्रभार मुक्त कर सरकार को पहले जांच करा लेनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है. बहरहाल, सरकार ने सीबीआइ को बचा लिया है.
जब यूपीए की सरकार थी, तब विपक्षी लोग सीबीआइ को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ करप्शन की शब्दावली से नवाजते थे. तब भी लोगों का भरोसा सीबीआइ पर पहले की ही तरह था. अब एनडीए की सरकार है, तो आज पूरी सीबीआइ को ही भ्रष्ट बताया जा रहा है. कोई इसे करप्ट ब्यूरो कह रहा है, तो कोई कुछ कह रहा है.
मुझे इस बात से बड़ी हैरत होती है कि इस तरह की खबरों-बयानों को मीडिया भी प्रमुखता से छाप-दिखा देता है, जिसका असर यह होता है कि भारतीय समाज में इस बड़ी जांच एजेंसी की छवि धूमिल होती है. सीबीआइ ने बहुत बड़े-बड़े मामलों को हल किया है और इससे समाज का ही भला हुआ है. यह सब सीबीआइ में बैठे ईमानदार अधिकारियों की बदौलत हुआ है. किन्हीं एक-दो अधिकारियों की गलती के चलते पूरी सीबीआइ को गलत बताना ठीक बात नहीं है.
सीबीआइ में अधिकारियों की एक बड़ी संख्या है और इनका काम भी बहुत जोखिम और सूझबूझ वाला है. सीबीआइ में डेढ़-दो सौ एसपी हैं, चार हजार के करीब डिप्टी एसपी हैं और अन्य अधिकारी हैं, दो दर्जन से ज्यादा डीआईजी हैं, एक दर्जन संयुक्त निदेशक हैं, और शीर्ष पदों पर निदेशक और विशेष निदेशक हैं.
यानी कुल मिलाकर देखें, तो साढ़े चार-पांच हजार के करीब अधिकारियों का यह महकमा है, जिसमें एक से बढ़कर एक ईमानदार अधिकारी हैं. ऐसे में महज दो लोगों के बीच उभरे विवाद के चलते पूरी सीबीआइ को कठघरे में कैसे खड़ा किया जा सकता है, वह भी तब, जब दोनों अभी गुनहगार साबित नहीं हुए हैं. अभी यह जांच का विषय है और इसमें समय लगेगा.
मैं सीबीआइ का संयुक्त निदेशक रहा हूं. मौजूदा विवाद के सामने आते ही बड़ी संख्या में लोग मुझसे बात करना चाहते हैं, वह इसलिए कि ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि सीबीआइ में एक ईमानदार अधिकारी का मतलब क्या होता है. मैं अकेला नहीं हूं, मेरे जैसे सैकड़ों ईमानदार सीबीआइ अधिकारी तब भी थे, और अब भी हैं. इसलिए हमें उन सबका सम्मान करते हुए सीबीआइ पर भरोसा करना चाहिए.
सीबीआइ के निदेशक की नियुक्ति के लिए मंत्रिमंडल की एक नियुक्ति समिति (एसीसी) होती है. इस समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और नेता-प्रतिपक्ष होते हैं.
मैं इस बात को शुरू से कह रहा हूं कि सीबीआइ के निदेशक पद पर आलोक वर्मा की नियुक्ति उचित नहीं थी, क्योंकि वर्मा पुलिस महकमे से आते हैं. समिति की चयन प्रक्रिया ठीक थी, लेकिन वर्मा के रूप में निदेशक का चुनाव ठीक नहीं था.
आलोक वर्मा दिल्ली पुलिस के अच्छे अधिकारी हैं, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन सीबीआइ में कैसे काम करना है, वे इससे अनभिज्ञ हैं. इसलिए कायदतन सीबीआइ में नंबर दो के पद पर काम कर रहे विशेष निदेशक आरके दत्ता को निदेशक बनाना चाहिए था, लेकिन उनका तबादला गृह मंत्रालय में कर दिया गया.
सीबीआइ और पुलिस महकमे का काम अलग-अलग होता है और इनमें काम करने के तरीके भी अलग-अलग होते हैं. सीबीआइ के निदेशक पद के लिए सीबीआइ में काम कर रहा अधिकारी ही नियुक्त किया जाना चाहिए.
लेकिन, मौजूदा सरकार ने पुलिस विभाग से आनेवाले आलोक वर्मा को सीबीआइ निदेशक बना दिया, जिसका तब विपक्ष ने विरोध भी किया था. किसी और विभाग से किसी को भी लाकर सीबीआइ अधिकारी नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि सीबीआइ को संभालना इतना आसान नहीं है, इसके लिए सीबीआइ में काम करने के लंबे अनुभव की दरकार होती है. मैंने जो बात कही थी, आलोक वर्मा इसकी मिसाल साबित हुए और आज उल्टा उन्हीं पर भ्रष्टाचार का आरोप लग गया.
सीबीआइ कोई मामूली विभाग नहीं है कि किसी अन्य विभाग का व्यक्ति भी इसे चला लेगा, यह बात सरकार को समझनी चाहिए थी. सीबीआइ ने नाम कमाया है और इसकी छवि अच्छी है. जब भी कोई बड़ा मसला आता है, तो सबसे पहले सीबीआइ से जांच की मांग करते हैं. इस छवि को बरकरार रखने की जरूरत है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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