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अमृतसर हादसे से कुछ सबक लेंगे
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक,प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in अमृतसर रेल हादसे में आधिकारिक रूप से 59 लोगों की जान जा चुकी है और अनेक लोग गंभीर रूप से घायल हैं. रेलवे मंत्रालय और पंजाब सरकार के बीच तीखी बहस चल रही है कि इस हादसे के लिए कौन जिम्मेदार है. इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि पंजाब […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक,प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
अमृतसर रेल हादसे में आधिकारिक रूप से 59 लोगों की जान जा चुकी है और अनेक लोग गंभीर रूप से घायल हैं. रेलवे मंत्रालय और पंजाब सरकार के बीच तीखी बहस चल रही है कि इस हादसे के लिए कौन जिम्मेदार है.
इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी नवजौत कौर थीं. जो वीडियो और ऑडियो सामने आएं हैं और अगर वे सही हैं, तो वे चिंताजनक हैं. इसमें आयोजक मुख्य अतिथि को बता रहे हैं कि अब आप आ जाएं, क्योंकि पांच हजार लोगों की भीड़ जुट गयी है और किसी भी परिस्थिति में हिलने वाली नहीं है. होगा यह कि इस हादसे पर भी कुछ जांच कमेटियां बैठेंगी, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलेगा. हम ऐसे हादसों से कुछ सबक लेते नजर नहीं आयेंगे.
रेलवे के अधिकारी इस आयोजन की औपचारिक सूचना न होने का दावा कर रहे हैं. सवाल उठ रहे हैं कि चालक ने ट्रेन की गति धीमी क्यों नहीं की? रेल अधिकारियों का कहना है कि जब घटना हुई, उस समय लोग रेल लाइन पर थे.
अंधेरा था और पटाखों की आवाज के कारण लोग ट्रेन की आवाज नहीं सुन पाये. चालक भीड़ को पहले नहीं देख पाया, क्योंकि वहां पर पटरी का एक घुमाव है. ट्रेन 91 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही थी. पटरी पर भीड़ देखने के बाद ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगाकर गति 68 किलोमीटर प्रति घंटे कर दी थी, लेकिन ट्रेन को रोकने में समय लगता है, अचानक रोकने की कोशिश करने से और बड़ा हादसा हो सकता था. रेल अधिकारियों की दलील है कि यह हादसा दो स्टेशनों के बीच हुआ, न कि रेलवे फाटक पर.
बीच के रास्ते पर ट्रेनें अपनी निर्धारित गति से चलती हैं और यह उम्मीद नहीं की जाती कि लोग पटरियों पर मौजूद होंगे. इसमें किसी चूक से स्थानीय प्रशासन भी पल्ला झाड़ रहा है, लेकिन गलती किसी की भी हो, इसका खामियाजा निरीह जनता को उठाना पड़ा है. अगर प्रशासन ने ऐसे कार्यक्रम को मंजूरी दी थी, तो नियमों के अनुसार जनता के बैठने का सही इंतजाम, लाइट, फायर ब्रिगेड और एंबुलेंस की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए थी. अमृतसर में जो हुआ, वह कोई नया नहीं है.
देश में हर साल धार्मिक पर्वों पर हादसों का होना जैसे नियति बन गया है. हादसों को लेकर जो संवेदनशीलता और प्रतिक्रिया होनी चाहिए, वैसी नजर नहीं आती है. जैसे हम मान कर चलने लगे हैं कि इन्हें हम नहीं टाल सकते. अमृतसर हादसे में फर्क इतना भर है कि एक और धार्मिक हादसा नये तरीके से हुआ है.
देश में पूरे वर्ष विभिन्न स्थानों पर धार्मिक आयोजन होते अथवा मेले लगते रहते हैं. आस्था के इन केंद्रों पर भारी भीड़ जमा हो जाती है और अनेक बार प्रबंधन फेल हो जाता है, जिसका नतीजा होता है- दुखद हादसे. भारत में ज्यादातर धार्मिक उत्सव नदी किनारे अथवा किसी ऊंचाई वाले पहाड़ी स्थल पर होते हैं.
वहां तक पहुंचने के रास्ते संकरे होते हैं और आवागमन की समुचित व्यवस्था संभव नहीं हो पाती है. कुंभ जैसे व्यापक मेलों को छोड़ दें, तो ऐसे आयोजन की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन को या फिर किसी थाने स्तर पर ही सौंप दी जाती है. इन लोगों को भीड़ नियंत्रित करने में कोई दक्षता हासिल नहीं होती. केवल अनुभव के आधार पर वे व्यवस्थाओं को अंजाम देते हैं.
अध्ययनों में पाया गया है कि भारत में लोग पश्चिम की तुलना में एक-दूसरे को स्थान देने की तब तक पूरी कोशिश करते हैं, जब तक कि परिस्थितियां हाथ से न निकल जाएं.
स्विटजरलैंड के प्रोफेसर डिर्क हेलबिंग ने भीड़ के व्यवहार का व्यापक अध्ययन किया है. इन अध्ययनों के मुताबिक भारत में प्रति वर्ग मीटर में 10 लोग तक समा जाते हैं, लेकिन इससे ज्यादा में दिक्कत हो जाती है. पश्चिम की तुलना में भारतीय एक-दूसरे को ज्यादा स्थान देते हैं, जबकि अमेरिका अथवा यूरोप में लोग दूसरों पर इतने मेहरबान नहीं होते, लेकिन जब इतनी भीड़ हो कि सांस लेने में ही दिक्कत होने लगे, तो समस्या खड़ी हो जाती है.
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट ने कुछ वर्ष पहले पर एक अध्ययन किया था, जिसके अनुसार भारत में भगदड़ की 79 फीसदी घटनाएं धार्मिक आयोजनों के दौरान होती हैं. इन स्थलों पर क्षमता से अधिक लोग पहुंच जाते हैं. सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं होते. भीड़ के नियंत्रण के दिशा-निर्देश भी तैयार किये जाते हैं.
इंतजाम करने वालों की इनकी जानकारी नहीं होती. उदाहरण के तौर पर, अधिक भीड़ होने पर उन्हें सर्पीली घुमावदार लाइन में लगवाना, वैकल्पिक रास्तों की व्यवस्था और अगर किसी नेता अथवा अधिकारी के आने से भीड़ के प्रबंधन में दिक्कत आये, तो उसे स्पष्ट मना करना जैसे उपाय शामिल हैं.
भगदड़ जैसे हादसों की पहली वजह तो प्रशासनिक विफलता होती है. वहीं, भीड़ का व्यवहार भी महत्वपूर्ण होता है. गौर करें कि अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में रोजाना हजारों लोग आते हैं, लेकिन वहां व्यवस्थाएं बेहद सुचारू रूप से काम करती हैं, क्योंकि लोगों का व्यवहार संयत रहता है.
देखने में आया है कि बहुत बार किसी अफवाह के कारण भी भगदड़ मच जाती हैं. भीड़ में अचानक कोई शख्स फिसल जाता है, तो उससे भी भगदड़ की घटनाएं सामने आती हैं. कई बार अचानक लाउडस्पीकर से घोषणा और तेज आवाज में गीत भी भीड़ को विचलित कर देते हैं.
कुछ अरसा पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वैष्णों देवी मंदिर दर्शन का करने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 50 हजार तय कर दी थी. कई महीनों में वहां श्रद्धालुओं की संख्या एक लाख को पार कर जाती है.
हालांकि वहां व्यवस्थाएं बहुत चौकस रहती हैं. यह एक महत्वपूर्ण और दूरगामी फैसला था. अगर राज्य सरकारें चाहतीं, तो इस फैसले के आधार पर आस्था के अन्य केंद्रों और भीड़-भाड़ वाले स्थलों पर ऐसी पहल कर सकती थीं.
जल्द ही छठ महापर्व आने वाला है. इस दौरान नदियों और तालाबों के किनारे मेले लगते हैं. प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि घाट के आसपास पर्याप्त रोशनी हो और घाट तक का मार्ग अवरुद्ध न हो.
याद हो, 2012 में पटना में अदालत घाट पर शाम के अर्घ्य के समय भगदड़ मचने से 18 लोगों की जान चली गयीं थीं. 2016 में बिहार के दरभंगा में एक दर्दनाक हादसे में छह महिलाओं की ट्रेन से कटकर मौत हो गयी थी.
ये महिलाएं छठ पूजा से लौट रही थीं. ये ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जिनसे व्यवस्थाओं को थोड़ा दुरुस्त कर बचा जा सकता था. एक और संभावित दुर्घटना की ओर ध्यान दिला दूं. छठ के दौरान अनेक स्थानों से लोगों के डूबने की खबरें आती हैं. थोड़ी व्यवस्था और सतर्कता से इससे बचा जा सकता है और इन उपायों से हम अपने पर्वों को सुखद बना सकते हैं.
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