।। रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
सोलहवीं लोकसभा के चुनावी नतीजों में हिंदी प्रदेशों की भूमिका पर विस्तारपूर्वक विचार नहीं किया गया है. अब तक जो विवेचन-विेषण किये गये हैं, उनमें जाति, संप्रदाय, शिक्षा, महिला, वय आदि पर बल दिया गया है. दस हिंदी प्रदेश (बिहार, झारखंड, यूपी, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान) भारत का हृदय-स्थल है. हिंदी प्रदेशों में दक्षिणपंथी विचारधारा और दल की अधिक पहचान कभी नहीं थी. 16वीं लोकसभा में भाजपा के 282 सांसदों में से 190 सांसद हिंदी प्रदेशों के हैं. शेष 92 सांसद अन्य 18 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से हैं. भाजपा को हिंदी प्रदेशों से इतनी सीटें कभी नहीं मिली थीं.
धीरूभाई सेठ ने ‘हिंदुत्व’ को किसी दल-विशेष की श्रेणी न मान कर ‘धार्मिक-सामाजिक श्रेणी’ माना है. धार्मिक-सामाजिक श्रेणी का राजनीतिक श्रेणी में रूपांतरण अस्सी के दशक में हुआ. पहले से लेकर पांचवें लोकसभा चुनाव (1952 से 1971) तक भारतीय जनसंघ को क्रमश: 3, 4, 14, 35, 22 सीटें प्राप्त हुई थीं और उसका वोट प्रतिशत क्रमश: 3, 6, 6, 9, 7 था. छठे लोकसभा चुनाव (1977) में जनसंघ ने अपने को जनता पार्टी में शामिल कर लिया था. आठवीं लोकसभा (1984) में भाजपा को मात्र दो सीटें मिली थीं. हिंदी प्रदेश में उसकी उपस्थिति गौण थी. भारत में भारतीय जनसंघ कभी प्रमुख दल नहीं था.
दक्षिणपंथी विचारधारा को महत्वपूर्ण बनाने में राजीव गांधी की बड़ी भूमिका रही. अपने पांच वर्षो के कार्यकाल (1984-89) में ‘विकास’ के साथ चुनाव पूर्व राम मंदिर का ताला खुलवा कर उन्होंने हिंदुत्व की राजनीति को जीवन प्रदान किया. 1989 के आम चुनाव में उन्हें इससे लाभ नहीं मिला. 404 सीटों वाली कांग्रेस 197 पर सिमट गयी. नौवें आम चुनाव (1989) से भारतीय राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन आया. सुहाश पलसीकर ‘उत्तर कांग्रेस राजनीतिक प्रणाली का उदय’ 1989 से मानते हैं. इसके बाद ही राज्य राजनीति का केंद्रीय मंच बना. एकदलीय प्रभुत्व समाप्त हुआ. जाति, क्षेत्र और अस्मिता केंद्रित राजनीति प्रमुख हुई. जिन तीन ‘मकारों’ की चर्चा की जाती है (मंडल, मंदिर और मार्केट), उनमें 1989 में मंडल और 1991 में मंदिर का मुद्दा प्रमुख रहा. अब ‘मार्केट’ ने इन दोनों को किनारे कर दिया है. हिंदी क्षेत्र में मंडल-कमंडल की राजनीति ने बाद में कई समीकरण भी बनाये. उस समय तक ‘बाजार’ की शक्ति का अनुमान बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को भी नहीं था. हिंदी प्रदेश औद्योगिक विकास से पिछड़ा रहा है. यहां कृषि प्रमुख रही, क्षेत्रवाद और गंठबंधन की राजनीति का उभार (1989) से हुआ. इसके पहले चौथे आम चुनाव (1969) में कांग्रेस आठ राज्यों में हारी थी और उसे लोकसभा में पहले की तुलना में 78 सीटें कम (289) प्राप्त हुई थीं. भारतीय जनसंघ की तीसरी लोकसभा की तुलना में 21 सीटें बढ़ी थीं.
कई हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दल प्रमुख रहे हैं. हालांकि राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली में क्षेत्रीय दल कभी प्रमुख नहीं रहे. मुख्य रूप से बिहार और यूपी (अविभाजित) में ही क्षेत्रीय दलों की प्रमुखता रही. क्षेत्रीय दलों के नेता लालू, नीतीश, मुलायम, मायावती एक समय तक ‘पापुलिस्ट’ रहे. यह ‘पापुलिज्म’ सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में नहीं चला और राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार इंदिरा के बाद यह ‘पापुलिज्म’ नरेंद्र मोदी में दिखाई पड़ा.
आठवीं (1984) से 16वीं लोकसभा (2009) तक के चुनाव में भाजपा में अटल-आडवाणी युग था. आठवीं से 15वीं लोकसभा तक में भाजपा सांसदों की संख्या क्रमश: 2, 85, 120, 161, 181, 182, 138 और 116 थी और वोट प्रतिशत 8, 11, 20, 20, 26, 24, 22, 19 था. पहले (1952) से आठवें आम चुनाव (1984) तक केवल छठी लोकसभा (1977) को छोड़ कर कांग्रेस ने हिंदी क्षेत्र से संसद में अपने सांसद तीन अंकों में भेजे. 1977 में हिंदी प्रदेशों की 225 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस को मात्र दो सीटें मिली थीं. मध्य प्रदेश और राजस्थान से एक-एक . उस समय के सात हिंदी प्रदेशों में से पांच में कांग्रेस शून्य थी. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संपन्न आठवें लोकसभा चुनाव (1984) में कांग्रेस को हिंदी प्रदेशों में 225 में से 217 सीटें प्राप्त हुई थीं. यानी उस समय की ‘सहानुभूति लहर’ हिंदी प्रदेशों में 16वें लोकसभा चुनाव की ‘मोदी लहर’ से बड़ी थी. अभी भाजपा को हिंदी प्रदेशों में 190 सीटें मिली हैं. इस बार कांग्रेस को हिंदी प्रदेशों की 225 सीटों में से मात्र आठ सीटें प्राप्त हुई हैं. बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से दो-दो और छत्तीसगढ़-हरियाणा से एक-एक. इसके पहले 1977 में कांग्रेस पांच राज्यों में शून्य थी, पर उसका कुल वोट प्रतिशत 34.52 था. भाजपा को इस बार करीब 31 फीसदी वोट मिले हैं. हिंदी प्रदेशों में बिहार और यूपी की भूमिका सर्वोपरि है. इन दो राज्यों में भाजपा को इस बार 93 सीटें (कुल 120 में) प्राप्त हुई हैं. बिहार से 22, यूपी से 71. क्षेत्रीय दल धरा-ध्वस्त हो चुके हैं. एक समय इन दोनों राज्यों में कांग्रेसी और समाजवादी प्रमुख थे. राजनीति इनके इर्द-गिर्द थी. इन राज्यों के क्षेत्रीय नेताओं में दूरदृष्टि का अभाव रहा है. इन्होंने कांग्रेस के पतन के बाद भाजपा के विकास पर ध्यान नहीं दिया. बाजार और कॉरपोरेट घराने ‘सामाजिक न्याय’ और ‘आर्थिक न्याय’ के विरुद्ध हैं. इस पर उनका ध्यान नहीं गया. क्षेत्रीय नेताओं ने संघ की ‘ताकत’ की भी अनदेखी की. वे भूल गये कि संघ के 40 आनुषांगिक संगठन हैं. कांग्रेस, वामपंथी, क्षेत्रीय दल नहीं समझ सके कि संघ के 50 लाख स्वयंसेवक हैं, 45 हजार शाखाएं हैं, 2500 प्रचारक हैं. विद्या भारती के 25 हजार शिशु मंदिर और वनवासी कल्याण आश्रम के 28 हजार आदिवासी स्कूल हैं. शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी भी संघ और कॉरपोरेट की शक्ति नहीं समझ सके. लालू, नीतीश, मुलायम, मायावती, अजित की राजनीति पिछड़ गयी.
विकास व सुशासन के नारे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने मिल कर भाजपा को बहुमत दिलाया. भाजपा के 282 सांसदों में से एक भी मुसलमान नहीं है. राजग के 336 में से मात्र एक सांसद, लोजपा के महबूब अली कैसर मुसलमान हैं. मुजफ्फरनगर दंगे और अमित शाह के सांप्रदायिक ‘कैंपेन’ के कारण यूपी से एक भी सांसद मुसलमान नहीं है, जबकि वहां इनकी संख्या करीब 19 फीसदी है. मुसलमान देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है (आबादी का 16 फीसदी), पर संसद में इनकी संख्या घट रही है. 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या मात्र 23 है.
हिंदी प्रदेश दक्षिण पंथ का गढ़ एक दिन में नहीं बना है. भाजपा ने 428 प्रत्याशियों में से मात्र सात मुसलमानों को टिकट दिया, दो फीसदी से भी कम. हिंदी प्रदेश की राजनीति ही भारत का भाग्य और भविष्य तय करती है, यह हिंदी प्रदेश के राजनीतिज्ञ अवश्य जानते होंगे.