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संकल्प, प्रतिज्ञा, शपथ
संतोष उत्सुक वरिष्ठ व्यंग्यकार हमारे जनतंत्र के तीन अंग हैं- कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका. इन सभी से संबद्ध कार्य ईमानदारी प्रतिबद्धता व कर्मठता से करने व करवाने के लिए संकल्प, प्रतिज्ञा, शपथ या इससे मिलती-जुलती पारंपरिक क्रियाएं सार्वजनिक जीवन में प्रयोग की जाती हैं. अवसर के अनुसार संकल्प लेना, प्रतिज्ञा करना या शपथ खा लेना […]
संतोष उत्सुक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
हमारे जनतंत्र के तीन अंग हैं- कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका. इन सभी से संबद्ध कार्य ईमानदारी प्रतिबद्धता व कर्मठता से करने व करवाने के लिए संकल्प, प्रतिज्ञा, शपथ या इससे मिलती-जुलती पारंपरिक क्रियाएं सार्वजनिक जीवन में प्रयोग की जाती हैं.
अवसर के अनुसार संकल्प लेना, प्रतिज्ञा करना या शपथ खा लेना हमारी राष्ट्रीय संस्कृति का जोरदार हिस्सा हो चुका है, जिससे हमारा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यावसायिक, सार्वजनिक व व्यक्तिगत जीवन सुचारु रूप से चलता दिखता है.
शरीर की इंद्रियों से दिमाग कहता है तुमने शपथ खायी है. हम सब शपथ, संकल्प, प्रतिज्ञा लेने और दिलानेवाले भी जानते हैं कि इन्हें कितने अच्छे माहौल में, साफ-सुथरे मनपसंद वस्त्र धारण कर, अपनी चुनी हुई भाषा में बेहद सलीके से मुस्कुराते हुए स्वीकार किया जाता है.
यह भी सच है कि बहुत से लोगों को कठिन प्रयास करने पड़ते हैं, क्योंकि वास्तव में वे इनमें से एक भी अपने मन पर चिपकाना नहीं चाहते, तभी तो ये तीनों अंग देने और लेने के बाद बेचारगी की स्थिति में आ जाते हैं.
उत्सव हाल से निकलते ही बंदा सोचना शुरू कर देता है कि आज के युग में सत्य और निष्ठा के बल पर कौन सफल हो रहा है. उसे लगता है यदि मैंने शपथ के आधार पर कार्य किया, तो सफलता चाहे मिल जाये, लेकिन संपन्नता संदिग्ध है.
इसलिए वह मन-ही-मन नये तरीके से शपथ लेता है और पुरानी का प्रभाव मिटा देता है. नेता, मंत्री, डाॅक्टर, वकील, अफसर, व्यवसायी, पति या पत्नी सब शपथ भूलने के लिए लेते हैं. जिस तरह हम बुरा स्वाद भी याद रखना नहीं चाहते, तो बुरी बातें कौन याद रखेगा, क्योंकि व्यावहारिक होना ज्यादा जरूरी है. इसकी गंभीर प्रेरणा हमारे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक नायकों से मिलती रही है.
भ्रष्टाचार हमारे देश की दीमकनुमा समस्या रही है. अब इतने दशकों तक तो सामूहिक ईमानदारी से इसे खूब बढ़ावा दिया और अब ईमानदारी से सोचा जा रहा है कि इसे खत्म कर देना चाहिए. कुछ समय पहले भ्रष्टाचार जड़ से खत्म करने के लिए एक शपथ का निर्माण किया था, जिसे काफी लोगों ने डरते-डरते ही बोला था.
शपथ थी- ‘मुझे पता है हमारे देश की आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक प्रगति में भ्रष्टाचार एक बड़ी बाधा है, इसका खात्मा करने के लिए सरकार नागरिकों व निजी क्षेत्र को एक साथ मिलकर काम करना चाहिए. प्रत्येक नागरिक को सतर्क होना चाहिए, उसे सदैव ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा के उच्चतम मानकों के प्रति वचनबद्ध होना चाहिए.’
आगे की शपथ को पढ़ने में गले में तकलीफ होने लगी. प्रतिज्ञा, शपथ और संकल्प समारोह में वह लोग बढ़-चढ़कर शामिल होते हैं जिनके पवित्र, ईमानदार, कर्मठ व संजीदा प्रयासों से स्वादिष्ट भ्रष्ट आचार का रंगीन व्यवसाय फला-फूला. कितने लोगों को काम, नाम और दाम मिला. वटवृक्ष की जड़ें तो सख्त पत्थर की तरेर में से भी निकलकर नया वटवृक्ष उगा देती हैं. ऊपर से पत्ते तोड़ दें, तो जड़ें सलामत रहती हैं.
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