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कई अभाव पूरे करने होंगे
अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org बीसवीं सदी के मध्य में उपनिवेशवाद से मुक्त हुए ज्यादातर नव-स्वतंत्र देशों की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप भी एक स्थायी अभाव से युक्त था. वृहत आर्थिक नजरिये से देखने पर, तीन श्रेणियों के इन अभावों में पहला और सबसे अहम खाद्य का अभाव था, जिसकी वजह यह […]
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो,
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
बीसवीं सदी के मध्य में उपनिवेशवाद से मुक्त हुए ज्यादातर नव-स्वतंत्र देशों की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप भी एक स्थायी अभाव से युक्त था.
वृहत आर्थिक नजरिये से देखने पर, तीन श्रेणियों के इन अभावों में पहला और सबसे अहम खाद्य का अभाव था, जिसकी वजह यह थी कि देश अपनी आबादी को खिलाने योग्य मात्रा में खाद्य का उत्पादन नहीं कर रहा था. यदि खाद्य की कीमतें अनियंत्रित रहतीं, तो खाद्य मुद्रास्फीति इतनी तीव्र हो उठती कि गरीब लोग उसे खरीद नहीं सकते और भुखमरी के शिकार हो जाते. इस अभाव से निबटने को हमने खाद्य उत्पादों का आयात करने, विदेशी मदद की आस जोहने तथा कीमतें नियंत्रित रखने का मार्ग अपनाया.
आयातों के लिए हमें विदेशी मुद्रा की जरूरत थी, जो इस अभाव की दूसरी श्रेणी थी. इसके मुकाबले को हमने निर्यातों पर जोर देने और विदेशी मुद्रा के बाहर जाने पर कड़े नियंत्रण की नीति अपनायी. तीसरी श्रेणी की समस्या राजकोषीय घाटे की थी, जिसके अंतर्गत सरकार करों अथवा गैर-कर राजस्व का इतना संग्रहण नहीं कर पाती थी, ताकि उसके खर्चे पूरे पड़ सकें.
अब यदि बीच के अंतराल को पार कर हम वर्ष 1991 में आर्थिक विकास के आगाज के भी सत्ताइस वर्षों बाद वर्तमान में आ जायें, तो खाद्य का अभाव कहीं सुदूर पीछे छूट चुका है और विदेशी मुद्रा का हमारा भंडार भरापूरा ही नहीं, विश्व के चार समृद्धतम देश में एक है. भारत आज कई किस्म की फसलों तथा दूध, कपास और ईंख जैसे कृषि उत्पादों का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक देश है, जिसका एक नतीजा फसलों की कम कीमतों और किसानों की निम्न आय के रूप में सामने आता है.
यही वजह है कि किसानों की आय वृद्धि हमारे सामने एक चुनौती बनकर खड़ी है, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी केवल एक हद तक ही मदद पहुंचा सकते हैं, क्योंकि सरकार भी फसलों की असीमित लिवाली नहीं कर सकती. यह एक दूसरी बात है कि अतिरिक्त उत्पादन के बावजूद हम भुखमरी एवं व्यापक बाल कुपोषण का खात्मा नहीं कर सके हैं.
मगर, अब भी कुछ अभाव हमारे सम्मुख मुंह बाये खड़े हैं. पहले राजकोषीय घाटे को लें. हालांकि, जीडीपी के फीसद के रूप में हमने हमेशा ही इस घाटे को नियंत्रित रखा, पर कभी भी हम इसे राजकोषीय बढ़ती में नहीं बदल सके हैं.
विकासशील देशों में आय से अधिक व्यय करने की मजबूरी होती है, पर यदि यह बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य तथा शिक्षा की बजाय सिर्फ वेतनों, पेंशनों, सब्सिडियों और कर्जमाफी पर हो, तो ऐसा व्यय विकास सुनिश्चित नहीं कर सकता. भारत के लिए आशाजनक स्थिति यह है कि चूंकि टैक्स देनेवालों की आबादी राजकोषीय जरूरतों से ज्यादा तेजी से बढ़ रही है, इसलिए हमेशा ही राजकोषीय घाटे की पूर्ति अगली पीढ़ी से होती रहेगी.
अगली समस्या चालू खाते के घाटे की है, जिसका अर्थ यह होता है कि हमारे आयात हमारे निर्यातों से अधिक हैं. पूर्वी एशिया के अपने पड़ोसियों के विपरीत, अपने इतिहास में केवल कुछ वर्षों को छोड़कर हम कभी भी चालू खाते को बढ़ती की स्थिति में नहीं ला सके हैं. इसका अर्थ यह होता है कि हमें हमेशा अपने आयातों के भुगतान हेतु डॉलरों की किल्लत बनी होती है.
इस स्थिति से हमारे स्टॉक मार्केट में विदेशी निवेशकों द्वारा किये जाते निवेश का पूंजी प्रवाह हमारी रक्षा किया करता है, पर वह अचानक कभी भी सूख सकता है. विदेशी मुद्रा प्रवाह का अगला स्रोत हमारे द्वारा लिये जाते ऋण भी हैं, जो अभी 450 अरब डॉलर की सर्वाधिक ऊंची चोटी पर पहुंच चुके हैं.
तीसरा तथा सबसे गंभीर अभाव बुनियादी संरचनाओं का है. वर्तमान में देश को लगभग एक लाख करोड़ डॉलर की कीमत की सड़कों, रेल पटरियों, हवाई अड्डों, समुद्री जलमार्गों तथा विद्युत एवं दूरसंचार संबंधी संरचनाओं की आवश्यकता है.
इस विराट खाई को पाटने हेतु न सिर्फ पर्याप्त निधि, बल्कि उपकरणों, सामग्रियों तथा तकनीकी जानकारी की जरूरत भी है. चौथा अभाव कौशल एवं शिक्षा का है. स्कूलों में नामांकन का अनुपात तो बढ़ा है, पर सीखने की गुणवत्ता में गिरावट आयी है. हमारे इंजीनियरिंग स्नातकों की रोजगारपरक योग्यता पर संजीदा सवाल उठे हैं. क्या हमारे पाठ्यक्रम एवं प्रशिक्षण सही किस्म के कौशल दे पा रहे हैं?
पांचवां अभाव शासितों तथा सरकार के बीच विश्वास का है. भारत के जीडीपी की तुलना में करों, खासकर प्रत्यक्ष करों का अनुपात विश्व के निम्नतम में एक है.
यहां पांच प्रतिशत से भी कम लोग आयकर देते हैं, मानो उन्हें सरकार पर भरोसा ही नहीं. हाल में बहुत-से ऐसे कानून बने हैं, जो ‘भरोसा आधारित’ या ‘स्व-सत्यापन’ आधारित हैं. हमने सूचना के अधिकार का कानून भी बनाया है, ताकि सरकार को जनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाया जा सके.
इन सबके बावजूद भारत में विश्वास की पूंजी अन्य कई देशों की अपेक्षा काफी पीछे है. इस अभाव की पूर्ति में प्रशासन में अधिक पारदर्शिता तथा जवाबदेही से मदद मिलेगी, जिसके लिए न्यायिक, पुलिस और निर्वाचन सुधारों की आवश्यकता होती है. हमारे पाटने को यह सबसे अहम खाई है.
(अनुवाद : विजय नंदन)
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