।। राजीव रंजन झा।।
(संपादक, शेयर मंथन)
भारत के वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली के पहले बयान की यह पंक्ति लोगों में भरोसा जगाती है कि ‘हमें विकास की गति को तेज करना है, महंगाई पर नियंत्रण करना है और सरकारी घाटे पर भी स्पष्ट रूप से ध्यान केंद्रित करना है.’ चाहे अर्थशास्त्री हों, शेयर बाजार के विश्लेषक या सड़क पर चलता एक आम इंसान, सभी कह सकते हैं कि लोग नयी सरकार से और उसके वित्त मंत्री से यही सुनना चाहते थे. अगर ये तीनों बातें हो गयीं, तो वाकई हम कहेंगे कि ‘अच्छे दिन’ आ गये! लेकिन इसी के आगे एक छोटा, लेकिन बेहद चुनौती भरा सवाल है- यह होगा कैसे?
2012-13 में विकास दर 4.5 फीसदी रही थी. फरवरी में पेश अंतरिम बजट में 2013-14 की विकास दर 4.9 फीसदी रहने का अनुमान था. आरबीआइ ने हाल में अनुमान रखा था कि 2014-15 के दौरान विकास दर 5 से 6 फीसदी के बीच रहेगी, जबकि काफी अन्य संस्थाओं के अनुमान 5.5 फीसदी के आसपास तक रहे हैं. लेकिन निर्णायक ढंग से मोदी सरकार बनने के बाद उद्योग संगठनों की उम्मीदें बढ़ गयी हैं. प्रमुख उद्योग संगठन कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री ने कहा है कि 2014-15 में विकास दर सुधर कर 6.5 फीसदी पर पहुंच सकती है और अगले तीन वर्षो में यह 8 फीसदी पर जा सकती है.
विकास दर तेज हो, यह केवल उद्योगपतियों का व्यवसाय बढ़ने का मुद्दा नहीं है. यह केवल अर्थशास्त्रियों और शेयर बाजार के कारोबारियों का मुद्दा नहीं है. इस बात का मुद्दा है कि विकास की तलहटी पर खड़े व्यक्ति को दो वक्त की रोटी के लिए कितना जूझना होगा? इस बात का मुद्दा है कि उसके सिर पर अपनी छत होगी या नहीं? इस बात का मुद्दा है कि पढ़े-लिखे युवाओं को रोजगार मिलेंगे या नहीं? विकास दर घटने का सीधा असर इन बातों पर होता है और सबसे तीखा असर आम आदमी पर होता है. कमाई घटती है, रोजगार नहीं मिलता, धंधा मंदा हो जाता है. इस बीच महंगाई बढ़ रही हो, तो जीना और दूभर हो जाता है. अर्थशास्त्री इसे स्टैग्फ्लेशन कहते हैं- ऐसा समय जब विकास दर धीमी पड़ जाये और महंगाई तेज हो जाये. बीते कई साल ऐसे ही गुजरे हैं.
जहां तक सरकारी घाटे (फिस्कल डेफिसिट) का मसला है, इस मोरचे पर अरुण जेटली के सामने ज्यादा दिक्कत नहीं होगी, जिसके लिए वे पी चिदंबरम को धन्यवाद दे सकते हैं. अंतरिम बजट में ही वे इसे 4.8 फीसदी के लक्ष्य की तुलना में 4.6 फीसदी पर लाकर वाहवाही लूट चुके हैं और नये वित्त मंत्री 4.1 फीसदी का लक्ष्य रख चुके हैं. हालांकि, एक नजरिया यह है कि विकास दर को बढ़ाने के लिए सरकारी घाटे को थोड़ा ज्यादा रखना बेहतर होगा. दरअसल, चिदंबरम ने अलग-अलग विभिन्न मदों में पिछले कारोबारी साल के एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के खर्चो को नये कारोबारी साल पर टाल दिया था. ये सारे खर्चे अरुण जेटली को चिदंबरम से तोहफे के रूप में मिले हैं. दूसरी तरफ चिदंबरम ने आंकड़ों का यह खेल भी खेला कि 2013-14 की कुछ आमदनी 2012-13 के खातों में ही दिखा दी जाये. जाहिर है, जेटली को इस हिसाब-किताब से भी जूझना होगा.
विकास दर तेज करने के मोरचे पर एक मायने में जेटली के लिए स्थिति सुविधाजनक भी है. पहली बात यह कि उन्हें विकास दर एकदम तलहटी पर पड़ी हुई मिली है. दूसरी, कई वर्षो के सरकारी अनिर्णय से पस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को कुछ बड़े फैसलों से ही टॉनिक मिल सकता है. तीसरी, यूपीए-2 सरकार ने जाते-जाते ही सही, लेकिन अटकी पड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए काफी जमीन तैयार कर दी थी. ऐसे में अर्थव्यवस्था की 5 फीसदी से कम विकास दर की मौजूदा सुस्त चाल की तुलना में 6-6.5 फीसदी विकास दर को छूना काफी संभव लगता है. लेकिन इसके बाद टिकाऊ तरीके से 8 फीसदी और उससे अधिक विकास दर पाने की असली चुनौती है. अगर भारतीय अर्थव्यवस्था को आज के 20 खरब डॉलर की तुलना में साल 2030 तक 100 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पाना है, तो 8 फीसदी की विकास दर कायम रखना जरूरी है. तभी भारत 2030 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन सकता है.
भारत बीते एक-डेढ़ दशक में कई वर्षो में 8 फीसदी या इससे अधिक विकास दर पाने में सफल रहा है, लेकिन चुनौती इस विकास दर को बनाये रखने की है. इसके लिए कुछ नया सोचना होगा. उद्योग संगठनों और ज्यादातर अर्थशास्त्रियों के पास आर्थिक सुधार नाम का घिसा-पिटा नुस्खा है. लेकिन मल्टीब्रांड (रिटेल) खुदरा कारोबार को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने जैसे आर्थिक सुधारों से कोई चमत्कार नहीं होनेवाला. वैसे भी भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में खुदरा एफडीआइ से स्पष्ट इनकार कर रखा है. अगर नये शहरों को विकसित करने की परियोजना चल पड़ी, अगर पुराने शहरों का कायाकल्प करने का अभियान चला दिया गया, अगर रेलवे का व्यापक आधुनिकीकरण शुरू कर दिया गया और बुनियादी ढांचे के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दे दी गयी, तो पूरी अर्थव्यवस्था पर इसका चौतरफा असर होगा. दृष्टि स्पष्ट है, लेकिन बतौर वित्त मंत्री, अरुण जेटली की समस्या यह होगी कि इन सपनों को हकीकत में बदलने के लिए संसाधन कहां से लायें! सपनों और चुनौतियों की तुलना में जेटली की थैली छोटी है.
खैर, विकास दर के मोरचे पर उन्हें थोड़ा समय मिलेगा. मगर महंगाई के मोरचे पर जनता बड़ी जल्दी बेसब्र हो सकती है. कहीं ऐसा न हो कि उन्हें भी आनेवाले दिनों में उन्हीं तर्को का सहारा लेना पड़े, जो तर्क यूपीए सरकार के होते थे. कहीं जेटली भी ठीकरा राज्य सरकारों पर न फोड़ने लगें. कहीं वे भी न कहने लगें कि विकास होने पर महंगाई तो कुछ बढ़ती ही है और किसानों को बेहतर मूल्य मिलने पर बाजार में भी दाम बढ़ते ही हैं. केवल अरुण जेटली नहीं, बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ध्यान में रखना होगा कि जनता ने इन सारे तर्को को नकार कर महंगाई घटाने के लिए उन पर जबरदस्त भरोसा किया है. अब उन्हें नतीजे लाकर दिखाना होगा. उन्हें महंगाई को लेकर दोतरफा रणनीति बनानी होगी. एक रणनीति फौरी राहत देने की, जिनका असर अगले चंद महीनों में दिख जाये. दूसरी रणनीति लंबी अवधि में इस समस्या को सुलझाने के लिए बनानी होगी. इसके लिए उन्हें ऐसे भी कई कड़े और बड़े फैसले करने पड़ सकते हैं, जिनका विरोध खुद उनके पारंपरिक वोट-बैंक और नोट-बैंक रहे तबकों की ओर से होने लगे.