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जम्मू-कश्मीर में नतीजों से निकले संदेश

।। शुजात बुखारी।। (एडिटर, राइजिंग कश्मीर) जम्मू-कश्मीर के छह संसदीय क्षेत्रों के नतीजे जहां हैरान करते हैं, वहीं कुछ ठोस संदेश भी देते हैं. इन सीटों पर अप्रत्याशित ढंग से भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने बराबर की जीत (तीन-तीन सीटें) हासिल की हैं. जहां कश्मीर घाटी की तीनों सीटें पीडीपी […]

।। शुजात बुखारी।।

(एडिटर, राइजिंग कश्मीर)

जम्मू-कश्मीर के छह संसदीय क्षेत्रों के नतीजे जहां हैरान करते हैं, वहीं कुछ ठोस संदेश भी देते हैं. इन सीटों पर अप्रत्याशित ढंग से भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने बराबर की जीत (तीन-तीन सीटें) हासिल की हैं. जहां कश्मीर घाटी की तीनों सीटें पीडीपी के खाते में गयी हैं, वहीं जम्मू संभाग की दोनों सीटों पर और लद्दाख में भाजपा का परचम लहराया है. घाटी में सत्ताधारी नेशनल कॉन्फ्रेंस (जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल है) को अपनी ऐसी तबाही की आशंका कभी नहीं रही होगी कि श्रीनगर संसदीय सीट पर उसके प्रमुख एवं सूबे के मुख्यमंत्री रहे डॉ फारूक अब्दुल्ला को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा. उनके तीन दशक के राजनीतिक कैरियर में ऐसा पहली बार हुआ है. संसदीय चुनाव में अपने गृह क्षेत्र से पहली बार किस्मत आजमा रहे पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के दिग्गज गुलाम नबी आजाद भी हारे हैं. इससे उनकी पार्टी और गंठबंधन सरकार को बड़ा झटका लगा है. पिछली लोकसभा में इस गंठबंधन के पांच सांसद (जम्मू, ऊधमपुर, अनंतनाग, बारामूला और श्रीनगर) थे, जिनमें से सभी हार गये. इस तरह के जनादेश का साफ मतलब है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की गंठबंधन सरकार राज्य के लोगों का भरोसा खो चुकी है, लोगों ने उसके किसी सांसद को पसंद नहीं किया.

हालांकि राज्य के तीनों संभागों में लोकसभा चुनावों के जनादेश के अलग-अलग कारक रहे हैं, लेकिन एक संदेश पूरे राज्य के लिए स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में कुशासन और भ्रष्टाचार बढ़ा है, प्रशासन निष्क्रिय हो चुका है, जिसके खिलाफ लोगों में भारी नाराजगी है. उनकी सरकार अपनी साढ़े पांच साल की कुछ उपलब्धियों को गिनाते नहीं थकती, जैसे- सूचना का अधिकार कानून, लोक सेवा गारंटी कानून, संस्थाओं की एकाउंटेबिलिटी को मजबूत करना और विकास की नयी परियोजनाएं शुरू करना आदि, लेकिन लोगों को उनके इन उपायों से सुशासन की मिठास नहीं मिल रही है. यही कारण है कि संसदीय चुनाव के दौरान दिये गये जनादेश में लोगों ने राज्य सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का जमकर इजहार किया है.

हालांकि उमर अब्दुल्ला दावा करते हैं कि उन्होंने वे सारे अच्छे कदम उठाये हैं, जो उठाये जाने चाहिए थे, लेकिन ये सारे कदम सरकारी मशीनरी के द्वारा ही आगे बढ़ने से रोक दिये गये हैं. मसलन, सूचना का अधिकार कानून को इसमें संशोधन करके कमजोर कर दिया गया है. इस संशोधन के जरिये नौकरशाहों के प्रति इसे लचीला बना दिया गया है. एकाउंटेबिलिटी कमीशन की शक्तियों को राज्य के मंत्री ही चुनौती दे रहे हैं. राज्य सरकार की विकास परियोजनाएं कछुआ चाल से आगे बढ़ रही हैं और इसके लिए खजाना खाली होने का रोना रोया जा रहा है. खामियों की यह सूची लंबी है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व में व्याप्त सत्ता की हेकड़ी के कारण इन खामियों पर सिर्फ परदा डाला जाता रहा है.

कश्मीर संभाग : अयोग्य प्रशासन के अलावा सरकार द्वारा लोगों को न्याय न दे पाने की अक्षमता भी इन चुनावों में सत्तासीन गठबंधन की भारी हार का कारण बनी. यह एक तथ्य है कि मतदान की व्यवस्था में अविश्वास जताते हुए लगभग 70 फीसदी लोगों ने चुनावों का बहिष्कार किया. 2009 में शोपियां में हुए दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या तथा इस घटना में कोई कार्रवाई नहीं होने से असुरक्षा और अन्याय की यह भावना घर कर रही थी. 2010 में 120 लोगों, जिनमें अधिकतर युवा थे, की हत्या बहुत बड़ी घटना थी, जिसने सुरक्षा को लेकर लोगों के भरोसे को पूरी तरह तोड़ दिया था. निहत्थे युवकों की हत्या के लिए दोषी किसी एक आदमी पर भी मुकदमा दर्ज नहीं किया गया. अफजल गुरु की फांसी ताबूत में आखिरी कील साबित हुई, जिसने आम कश्मीरी के मानस को झकझोर कर रख दिया. ऐसा नहीं है कि लोगों को इस सरकार से बहुत भरोसा था, लेकिन जिस तरह से नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार ने इस फांसी को स्वीकार किया और उसके परिवार को उसकी लाश देने से इनकार को भी नियति मान कर स्वीकार कर लिया, उससे इसकी छवि सबसे कमजोर सरकार की बनी. लोगों में गुस्सा पनप रहा था, जिसे कुछ लोगों ने भुनाने की कोशिश की. आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट को कश्मीर से हटाने का उमर अब्दुल्ला का वादा भी खोखला साबित हुआ है. वे सेना पर नियंत्रण रख पाने में भी असफल साबित हुए हैं, जो निदरेष नागरिकों की हत्या में शामिल रही है.

नेशनल कॉन्फ्रेंस की चुनावी रणनीति में भी खामियां रहीं. उसने अपने स्थानीय विरोधी मुफ्ती सईद के विरोध के द्वारा नरेंद्र मोदी का विरोध किया, जो लोगों के गले नहीं उतर सका, क्योंकि उनके लिए दिल्ली की हर पार्टी एक जैसी ही है. और फिर उमर का कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नाम पर अपने प्रत्याशियों के लिए वोट मांगना बड़ा अजीब था. वे अपनी सरकार और अपने सांसदों की उपलब्धियां गिनाने की बजाय एक असफल ‘राजकुमार’ का सहारा ले रहे थे, जो अपनी पार्टी को बरबादी के कगार तक ले गया है. अब जबकि विधानसभा के चुनावों में महज पांच महीने बचे हैं, वे इस हार से सबक लेने की बात कर रहे हैं. यह समय एक ऐसे मुख्यमंत्री के लिए बहुत कम है, जो अपने लोगों को दिल्ली के टीवी चैनलों के द्वारा संबोधित करता है.

जम्मू और लद्दाख : जम्मू और ऊधमपुर में भाजपा ने शासन व विकास के मुद्दे पर प्रचार किया. हालांकि नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री जम्मू क्षेत्र के लिए कुछ खास नहीं कर सकते हैं, लेकिन उनकी लहर का इस्तेमाल भाजपा ने क्षेत्र में ध्रुवीकरण के लिए बखूबी किया. हर किसी को अपने पसंद के उम्मीदवार को चुनने का अधिकार है, लेकिन जिस तरह से यहां एक समुदाय-विशेष को लामबंद किया गया, वह विविधता से भरे क्षेत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. गुलाम नबी आजाद की हार कांग्रेस के साथ-साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए भी एक बड़ा झटका है, जिसका कारण सरकार के प्रति नाराजगी से अधिक वोटों का ध्रुवीकरण है. नेशनल कॉन्फ्रेंस को यह सीट कांग्रेस को नहीं देनी चाहिए थी. भाजपा का राज्य नेतृत्व भले ही मोदी को धारा 370 हटाने के लिए राजी न कर पाये, लेकिन ऐसे विभाजक मसलों को तो इस जीत से वैधानिकता मिलती ही है.

लद्दाख में भाजपा की अत्यंत कम मतों (मात्र 36 वोटों) से जीत का कारण कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की आंतरिक गुटबाजी है. इस गठबंधन से दोनों दलों को तो नुकसान हुआ ही है, इसका राज्य को भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.

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