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न्याय की खातिर अन्याय
II सुरेश कांत II वरिष्ठ व्यंग्यकार न्याय को परिभाषित करना हो, तो सबसे पहले तो यही कहना होगा कि वह अन्याय का मोहताज होता है. अगर दुनिया में अन्याय न हो, तो न्याय का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा. क्योंकि फिर कैसे बताया जायेगा कि न्याय यानी क्या? अन्याय को देखकर ही पता चलता […]
II सुरेश कांत II
वरिष्ठ व्यंग्यकार
न्याय को परिभाषित करना हो, तो सबसे पहले तो यही कहना होगा कि वह अन्याय का मोहताज होता है. अगर दुनिया में अन्याय न हो, तो न्याय का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा. क्योंकि फिर कैसे बताया जायेगा कि न्याय यानी क्या?
अन्याय को देखकर ही पता चलता है कि न्याय नहीं हुआ, अन्याय को देखकर ही मांग उठती है कि न्याय होना चाहिए. न्याय इसलिए सदैव अन्याय का आभारी रहता है, अन्याय के आगे नतमस्तक रहता है. अन्याय सूरज है, तो न्याय चंदा. सूरज जिस तरह चांद को रोशनी देता है, तभी वह चमकता है, उसी तरह अन्याय भी न्याय को रोशनी देता है, जिससे न्याय की आंखें चुंधिया जाती हैं.
अन्याय न हो तो, न्याय भी नहीं होगा, जबकि न्याय न हो, तो अन्याय फिर भी होगा. न्याय यह बात समझता है, इसलिए वह चुप रहता है. नेता भी यह बात समझते हैं, इसलिए अन्याय को बढ़ावा देने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करते हैं.
अगर नेता विधायक भी हो, तो खुद आगे बढ़कर अन्याय करता है. मंत्री-मुख्यमंत्री बनकर तो वह साक्षात अन्याय का प्रतीक ही बन जाता है. ऐसा वे सिर्फ इसलिए करते हैं, ताकि न्याय भी थोड़ा-बहुत बना रह सके, उसका अस्तित्व मिट ही न जाये. क्योंकि जो जनता उन्हें चुनकर यहां तक भेजती है, वह न्याय का नवाबी शौक रखती है.
हालांकि, उन जैसों को चुनकर भी वह न्याय की उम्मीद रखती है, यह देख उन्हें ताज्जुब होता है. लेकिन उसका दिल न टूट जाये, इसलिए सीधे-सीधे कुछ नहीं कहते, अपने कार्यों से ही अपनी मंशा जताते रहते हैं. जनता का भरम बनाये रखना नेता बने रहने के लिए जरूरी जो है.
विधायक अगर जनता के साथ बलात्कार करता है, तो कोई शौकिया नहीं करता. न्याय को बढ़ावा देने के लिए करता है, जो अन्याय को बढ़ावा दिये बिना संभव नहीं. पुलिस अगर उसे गिरफ्तार नहीं करती, तो न्याय के हित में ही. उसे ‘माननीय विधायक जी’ कहकर फुसलाती है, ताकि वह बिदककर न्याय के हित में अन्याय करना छोड़ न दे.
उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करती, गवाहों को मारने और अनेक प्रकार से सबूत मिटाने के लिए खुला छोड़े रहती है, तो सिर्फ इसलिए कि पीड़िता को न्याय मिल सके. उसे न्याय दिलाने के लिए ही सब उसके साथ अन्याय करते या होने देते हैं.
जितना ज्यादा अन्याय होगा, उतना बड़ा न्याय मिलेगा. अब न्याय पाने के लिए यह त्याग तो महिलाओं को करना होगा. न्याय का गुड़ खाने के लिए अन्याय के गुलगुलों से परहेज वे नहीं कर सकतीं. बल्कि अच्छा रहेगा, जो सहमति से महिलाएं उनकी सेवा में जाती रहें, जैसे महाभारत की कथा में एक राक्षस के भोजन के लिए रोज एक आदमी भेजा जाता था.
क्या कहा, वह तो राक्षस था! तो इन्हें आपने क्या कम समझा है? और क्या कहा, कि वह तो पुराना जमाना था? तो उसी गौरवशाली युग को लौटाने की तो सारी कवायद चल रही है, जिसमें दलित सवर्णों के पैरों की जूती बनकर रहें और महिलाएं अपने को इंसान नहीं, बल्कि पुरुषों का भोज्य पदार्थ समझें.
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