देश के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे लंबे चुनावी दौर के अंतिम चरण का मतदान आज हो रहा है. निर्वाचन आयोग द्वारा छह मार्च को जारी अधिसूचना के साथ 16वीं लोकसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई थी. हालांकि राजनीतिक दलों, मीडिया और जनता में आम चुनाव को लेकर माहौल काफी पहले से बनने लगा था, लेकिन चुनावी सरगर्मियां प्रत्याशियों के मैदान में उतरने और आधिकारिक चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद तेजी से बढ़ीं.
इस पूरे चुनाव में दो बातें निश्चित रूप सकारात्मक रहीं. एक तो यह कि चुनाव आयोग, संबंधित प्रशासनिक संस्थाओं, कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों ने इस महती दायित्व को सुव्यवस्थित और शांतिपूर्ण तरीके से पूरा करने की कोशिश की. यह हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय लोकसभा का चुनाव दुनिया की वृहत्तम राजनीतिक परिघटना है. दूसरा स्वागतयोग्य तथ्य यह है कि लगभग समूचे देश में मतदाताओं ने अपने प्रतिनिधियों को चुनने में जबरदस्त उत्साह प्रदर्शित किया है, जो मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि में साफ दिखता है.
लेकिन, इस दौरान कई ऐसी बातें भी हुईं, जो निराशाजनक हैं और लोकतांत्रिक चेतना व उत्साह को क्षुब्ध करती हैं. विरोधियों की नीतियों की तथ्यपूर्ण आलोचना राजनीति का स्वाभाविक और जरूरी हिस्सा है, परंतु इस चुनाव में व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोपों की प्रवृत्ति और अभद्र भाषा ने मर्यादा की हर सीमा का अतिक्रमण किया है. दुर्भाग्यवश, इसमें ज्यादातर पार्टियों के बड़े नेता शामिल रहे हैं.
चुनाव प्रचार में कुछ दलों ने पानी की तरह पैसा बहाया. कई जगहों पर मतदाताओं को बहलाने-फुसलाने और डराने-धमकाने की कोशिशें भी हुईं. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आचार संहिता के उल्लंघन के हजारों मामले चुनाव आयोग के सामने आये. कुछ नेताओं ने चुनाव आयोग को खुली चुनौती देने के साथ ही उसकी चेतावनियों को भी अनसुना कर दिया. काम के दबाव और सीधे हस्तक्षेप कर पाने की अपनी सीमा के बावजूद चुनाव आयोग ने जब कार्रवाई की, तो उस पर भी आक्षेप लगाये गये. जाहिर है, इस चुनाव के दौरान हासिल अनुभवों से सबक लेते हुए चुनाव आयोग और आचार-संहिता को उत्तरोत्तर अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है.