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बिन पानी सब सून
भारत दुनिया के उन हिस्सों में शामिल है, जहां निकट भविष्य में भीषण जल संकट की आशंका है. आसार अभी से ही स्पष्ट दिख रहे हैं. यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट ने फिर एक बार इस चिंताजनक सच को रेखांकित किया है कि पानी की कमी से निपटने के लिए ठोस उपाय नहीं किये जा रहे […]
भारत दुनिया के उन हिस्सों में शामिल है, जहां निकट भविष्य में भीषण जल संकट की आशंका है. आसार अभी से ही स्पष्ट दिख रहे हैं. यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट ने फिर एक बार इस चिंताजनक सच को रेखांकित किया है कि पानी की कमी से निपटने के लिए ठोस उपाय नहीं किये जा रहे हैं.
वर्ष 2050 तक संकट इतना गहरा हो जायेगा कि हमें पानी का आयात करना पड़ सकता है. उस समय वर्तमान उपलब्धता का मात्र 22 फीसदी पानी ही बचा होगा. वर्ष 1951 और 2011 के बीच प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में 70 फीसदी की गिरावट आयी है. हमारी मौजूदा आबादी करीब 1.3 अरब है और 2050 तक इसके 1.7 अरब होने का अनुमान है. ऐसे में दुनिया की 16 फीसदी आबादी को समुचित मात्रा में पानी मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि हमारे हिस्से में धरती का कुल चार फीसदी पानी ही है. इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण भूजल का बेतहाशा दोहन है. इस संबंध में जो कुछ कायदे-कानून हैं, उनकी परवाह न तो सरकार को है और न ही उद्योग जगत या आम नागरिक को. भूजल दोहन के वैश्विक खाते में हमारा हिस्सा करीब 25 फीसदी है और यह मात्रा चीन एवं अमेरिका के संयुक्त हिसाब से भी ज्यादा है. सिंचाई के पानी का 60 फीसदी से अधिक और पेयजल का 85 फीसदी भूजल से ही आता है.
इसके बावजूद, जैसा कि विश्व बैंक के आंकड़े इंगित करते हैं, 16.30 करोड़ भारतीय साफ पेयजल से वंचित हैं और 21 फीसदी संक्रामक रोगों का सीधा कारण गंदे पानी का सेवन है. हर रोज पांच साल से कम उम्र के औसतन 500 बच्चे डायरिया से मर जाते हैं और 21 करोड़ लोग अच्छी साफ-सफाई से वंचित हैं. नदियों के प्रदूषण की समस्या विकराल होती जा रही है, फिर भी इस संबंध में सुविचारित पहल नहीं की जा रही है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निर्धारित प्रदूषित नदियों की संख्या बीते पांच सालों में 121 से बढ़कर 275 हो चुकी है. दशकों से हमारे नीति-निर्धारकों की नजरों में नदियों की हैसियत जल-आपूर्ति की पाइपलाइन से अधिक कुछ नहीं रही है. औद्योगिक और शहरी नालों की निकासी, बांधों का बेतरतीब अंधाधुंध निर्माण और नदी तटों एवं बालू का कुप्रबंधन ऐसे कारक हैं, जिनके कारण आज हमारी नदियां बजबजाते नाले में बदल गयी हैं और उनमें पानी कमतर होता जा रहा है.
केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों से वन क्षेत्रों में कमी आ रही है और नदी तटों पर बेतहाशा निर्माण हो रहे हैं. जल संसाधन मंत्रालय हों या फिर केंद्रीय जल आयोग हो, इनके पास दीर्घकालिक सोच तो छोड़ दें, तात्कालिक रणनीति भी नहीं है.
बीते सालों के सूखे और बाढ़ के कहर से भी सीख नहीं ली गयी है. पानी का मसला आम तौर पर राजनीतिक चर्चा से भी अनुपस्थित रहता है और इसकी याद जल-विवादों या आपदाओं के समय ही आती है. इस तबाही से बचाव के लिए सरकारों और उद्योग जगत के साथ समाज को भी सक्रिय होना पड़ेगा.
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