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कम्बख्त दिमाग सोचता तो है

संतोष उत्सुक व्यंग्यकार कल शाम के अंधेरे की बात है. नगरपालिका के बड़े अफसर हमारे मोहल्ले में सफाई की न सुधरती दशा को अपनी आंखों से देख मुस्कुरा कर नकारने आये, मगर पता नहीं चला कि वे आये थे. मैंने अपनी पत्नी से बताया, तो उन्होंने सही जवाब दिया कि लाल बत्ती उतरवाकर सरकार ने […]

संतोष उत्सुक

व्यंग्यकार

कल शाम के अंधेरे की बात है. नगरपालिका के बड़े अफसर हमारे मोहल्ले में सफाई की न सुधरती दशा को अपनी आंखों से देख मुस्कुरा कर नकारने आये, मगर पता नहीं चला कि वे आये थे. मैंने अपनी पत्नी से बताया, तो उन्होंने सही जवाब दिया कि लाल बत्ती उतरवाकर सरकार ने अच्छा नहीं किया.

वैसे भी तो लाल बत्ती गाड़ी पर कम दिमाग की हर सतह में ज्यादा स्थापित होती है. इतने रुतबा पसंद समाज से इस तरह कम समय में आसानी से ‘आत्म सम्मान युक्त महान भावना’ कैसे निकल सकती है. हमारे करोड़ों बार सोचने और तरह-तरह के पकौड़े चटनी के साथ खाते रहने के बाद भी कुछ बदलनेवाला तो है नहीं.

पत्नी बोली, मेरा समझदार दिमाग सोचता है कि लाल बत्ती दोबारा लगनी चाहिए और बड़े नहीं छोटे भी माफ करें, यह सभी सरकारी गाड़ियों पर लगी रहनी चाहिए. कैसा भी ‘वीआइपी’ आसपास पधारे, पता तो चलना ही चाहिए.

मुझे उनकी बात में सामाजिक सशक्तीकरण लगा. मैंने गुजारिश की कि कुछ और परिवर्तन बताएं, जो समाज की जरूरत हैं. उनके अनुसार, जिन कुछ लोगों ने समाज में शारीरिक अफरा-तफरी मचा रखी है, उनका मुंह पक्के रंग से काला करने का कानून बनाकर प्राइवेट सेक्टर द्वारा लागू करवाया जाये.

ड्राइव करते समय मोबाइल फोन सुनने और करने का सख्त कानून पूरे देश में लागू समझा जाये. बाजारों में पैदल चलने की इजाजत उसी व्यक्ति को हो, जिसके पास डाॅक्टर की वैध अनुमति रहे. मैंने सोचा वाह! क्या क्रांतिकारी सोच है. प्रायोगिक और प्रोग्रेसिव भी.

मुझे लगा सड़कें बनानेवाले पेड़ उजाड़ते समय वृक्ष रोपित करने के झूठे वायदे न करके खूबसूरत हरे रंग की प्लास्टिक के कभी नष्ट न होनेवाले पेड़ सड़क के किनारे लगा दें, तो सरकारी जिम्मेदारी तत्काल निर्विघ्न पूरी हो जायेगी.

सरकार को यह कानून बना देना चाहिए कि हर चैनल रोज कुछ घंटे के लिए प्रसिद्ध व्यक्ति से संबंधित शोक कार्यक्रम प्रस्तुत करेगा. लोक संपर्क विभाग द्वारा आम जनता के लिए हर सप्ताह हर मोहल्ला में लाइव मनोरंजक कार्यक्रम पेश किये जाएं. प्रतिदिन बार बार मरने को विवश लोगों को होलिका दहन में प्रवेश दिया जाये, क्योंकि वे इंसाफ हासिल करने के लिए अपने असफल प्रयासों का बुरा नहीं मानते हुए थक चुके होते हैं.

मैंने समझाया, सहिष्णुता के स्वर्णिम दौर में किसकी हिम्मत है कि ऐसा करने की सोचे. मेरी पत्नी बोली, फिर तो वसंत गुम हो जाने पर भी बहार पर कविताएं गढ़ते रहो. मन की खुनूस को नये रंग देते रहो. नकली रंगों से होली मनाते रहो. सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की वर्दी का रंग बदल डालो, ताकि वे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में शामिल हों.

कुछ देर बाद हम दोनों को लगने लगा कि हमारी सोच के अंदाज नये हैं, पर गलत हैं. हम चाहे अपनी सभ्यता, संस्कृति, पुरातत्व को संभालकर न रख सकें, मगर हमें बातचीत में भी ऐसा नहीं करना चाहिए. कम्बख्त दिमाग सोचता तो है न.

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