।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
पूरा देश दीवाना है. गरमी सर पर, और चुनाव सर से उतर ही नहीं रहा. जल्दी से 16 मई आवे और हमको इस नौ चरणी चुनाव से छुटकारा दिलावे. अभी तक ठीक-ठाक निपट गया है, बाकी भी शांति से निपट जावे तो चैन आवे. इतना इंतजार तो आदमी भगवान का नहीं करेगा आज के जमाने में, जितना कि चुनाव के खत्म होने का कर रहा है. 502 सीट पर हो चुका है, 41 अभी भी बाकी है. पर टीवी देखिए तो लगता है खाली बनारस में ही हो रहा है. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का गाना बज रहा है. बहुत ऐसे हैं, जिन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. पर सब की इच्छा है कि बुरा है या अच्छा है, आ जाए बस. वो आते हैं, वो आयेंगे, आ रहे होंगे, ये कह कह कर शब-ए-गम गुजार दी हमने. शब-ए-गम गुजर गयी या आ रही है, ये कौन जाने पर शाम का रंग कभी सिंदूरी तो कभी धूसर. पल पल बदलते रंग से दंग दुनिया समझ नहीं पा रही कि इस रात की सुबह कैसी होगी. बनारस मोदीमय है और बहुत सारा मोदीभय भी. मोदी खुद मोदीमय हैं और रंग ऐसे बदल रहे हैं जैसे मौसम बदलता है. आजकल अपने पिछड़ा होने का बहुत रगड़ा मार रहे हैं. बात जात पर आ गयी है. खिसियाए लोग उनको पता नहीं क्या क्या बुला रहे हैं. बंगाल की दीदी ने उनको बंदर तक कह दिया. रंग तो गिरिगट बदलता है, बंदर बेचारा बदनाम हो रहा है.
डार्विन बाबा कह गये कि मनुष्य का विकास कई चरणों में हुआ और लाखों बरस लगे. आरंभ में जब ये दुनिया पानी-पानी थी, हम सब मछली थे. मगरमच्छ हुए तो पैर लग गये. फिर पेड़ों पर चढ़े तो बंदर बने. हजारों साल बंदर रहे. फिर पूंछ की जरूरत नहीं रही तो पूंछ गायब हो गयी. फिर जरूरत हुई तो वापस उग आयेंगे. जरूरत के हिसाब से शरीर बदलता है. डिमांड के हिसाब से सप्लाई होती है. जब तथाकथित विकास पुरु ष पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति करते हैं, तो वह जातिवादी नहीं होते. इसका मतलब ये है कि वहां की जनता जातिवादी है. मोदी जरूरत पूरी कर रहे हैं. जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी. उसको थोड़ा पलट कर देखिए. प्रभु मूरत देखी जहां जैसी, वाकी रही भावना तैसी. अभी तो जनता ही प्रभु है. बहुत मशहूर हो गई है ये कविता कि राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे पर तारीख नहीं बताएंगे. पहली दो पंक्तियों से एक वक्त दीवारें रंगी होती थीं. फिर लोग उसे अयोध्या तक में नहीं गुनगुनाते. मोदी जी फैजाबाद गये तो रामलला की तसवीर थी मंच पर, लेकिन मुंह से मंदिर नहीं निकला. क्योंकि जरूरत नहीं थी. मंदिर से वोट नहीं मिलते. एक जमाने में मंदिर ने दो सीट से 80 सीट तक पहुंचा दिया था. अब उतने काम का नहीं रहा, इसलिए घोषणापत्र के आखिरी पन्ने पर दो वाक्यों में निपटा दिया.
जाति तो धर्म से ही है. मोदीजी का जाति प्रेम नेताजी का जाति प्रेम नहीं, जनताजी का जाति प्रेम है. जरूरत पड़ने पर खाप भी बाप होता है. हरियाणा में हर पार्टी खाप पंचायतों को जरूरत बताती हैं अपनी जरूरत के हिसाब से. कौन लड़ाई मोल ले उनसे, जो गोत्र के वोट का निर्णय करते हैं? क्या कारण है कि देश के कुछ इलाके पिछड़ गये हैं? संसाधन और अवसर कम हो गये. जातिवाद कमोबेश पूरे देश में है. जातिवाद की जड़ें गहरी हैं, पर जड़ें हमेशा नीचे ले जाती हैं. जिन इलाकों में लोग पत्ती-टहनियों पर ध्यान देने लगे, वह फले-फूले. जरूरत पड़ी तो पानी दे दिया, पर जड़ को जोगते रहने की बजाय, फलों को जोगा, कीड़ों से और चोरों से. जो जड़ों पर गर्व करते रहे, वह जमीन में गड़ते गये. जड़ और चेतन में फर्क इतना ही है. जड़ अधोगति का प्रतीक है. चेतन में चेतना होती है. इस मामले में मोदी चेतन चौहान हैं, चूकना नहीं चाहते. मोदी जातिवादी सोच से नहीं, जरूरत से हुए. वह तो विकास का झुनझुना वहीं बजाते हैं, जहां लोग विकास से बहल जाते हैं.
जहां जात-पात का भात चलता है, वहां रोटी-दाल परोस कर घात कौन ले. जैसा देस वैसा भेस. यहां कोस-कोस पर पानी बदलता है. जनता बदल जाती है, तो नेता भी बदल जाते हैं. ये नेता तो जनता को उनकी औकात बताते हैं. लालूजी मुसलिम यादव का माई समीकरण बनाते हैं क्योंकि लोगों को समीकरण बना रहना अच्छा लगता है. लालूजी को जरूरत नहीं रहेगी यह सब करने की, अगर मुसलिम और यादव कह देंगे कि हम इससे नहीं बहलने वाले. हालात बदलिए नहीं तो हाथ मलिए. आदिवासी मुख्यमंत्रियों के रहते 14 साल में झारखंड के आदिवासियों के हालात कितने बदले. जब तक वह खुश हैं किसी नेता को कुत्ते ने काटा है कि वह हालात बदलेंगे. जनता जातिवादी है. नेता सिर्फ वोटवादी हैं.