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टीबी से मुक्ति

संक्रामक रोगों में तपेदिक (टीबी) दुनियाभर में सर्वाधिक घातक रोगों में शुमार है. इसकी रोकथाम में बड़ी मुश्किल अब यह आ रही है कि मलेरिया जैसी कई बीमारियों की तरह टीबी के रोगाणुओं में भी एंटीबायोटिक्स दवाओं से लड़ने और उन्हें नाकाम करने की क्षमता (एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस) पैदा हो गयी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन […]

संक्रामक रोगों में तपेदिक (टीबी) दुनियाभर में सर्वाधिक घातक रोगों में शुमार है. इसकी रोकथाम में बड़ी मुश्किल अब यह आ रही है कि मलेरिया जैसी कई बीमारियों की तरह टीबी के रोगाणुओं में भी एंटीबायोटिक्स दवाओं से लड़ने और उन्हें नाकाम करने की क्षमता (एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस) पैदा हो गयी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रतिरोधक क्षमता के कारण होनेवाली मौतों की एक बड़ी वजह टीबी और एचआईवी संक्रमण हैं. हालांकि, साल 2000 के बाद से वैश्विक स्तर पर टीबी पर अंकुश लगाने की कोशिशों के कारण तकरीबन सवा पांच करोड़ लोगों की जान बचायी गयी है और इस रोग से होनेवाली मौतों की दर में 37 फीसद की कमी आयी है, लेकिन तपेदिक के तेज प्रसार को देखते हुए यह उपलब्धि कम मानी जायेगी. वर्ष 2016 में विश्व स्तर पर 1.04 करोड़ टीबी के नये मामले सामने आये थे.
तपेदिक के मामले में भारत की स्थिति और भी ज्यादा संगीन है. दुनिया में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज (करीब 28 लाख) भारत में हैं और 2016 में इस रोग से देश में 4.23 लाख रोगियों की मौत हुई. तपेदिक की भयावहता को देखते हुए इसके खात्मे के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये अभियान की सराहनीय पहल की है. वैश्विक स्तर पर तपेदिक के खात्मे का लक्ष्य साल 2030 रखा गया है, पर भारत ने 2025 तक इसे पूरा करने का इरादा किया है. इस संदर्भ में टीबी की दवाइयों की कीमतें कम करने की जरूरत है.
बेशक सरकार ने टीबी की जांच और उपचार की नि:शुल्क व्यवस्था की है, लेकिन सरकारी स्वास्थ्य संसाधनों की कमी के कारण तपेदिक के बहुत से मरीजों को निजी क्लीनिकों और अस्पतालों में उपचार कराना पड़ता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, कुछ राज्यों में ऐसे मरीजों की तादाद 50 फीसदी या इससे भी ज्यादा है. फिलहाल एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस वाले तपेदिक मरीजों के उपचार में इस्तेमाल की जानेवाली दो दवाओं- बेडाक्यूलाइन और डेलामेनिड- को 2023 के अक्तूबर तक भारत में पेटेंट कानूनों के तहत संरक्षण हासिल है.
ये दवाएं महंगी होने के कारण ज्यादातर मरीजों की जेब पर बहुत भारी पड़ती हैं. जब तक सरकार विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स समझौते के तहत इन दवाओं को हासिल विशेषाधिकार को खत्म नहीं करती है, इस कोटि की जेनेरिक दवाएं नहीं बनायी जा सकतीं. इस कोटि की जेनरिक दवाएं बनाने पर खर्च 95 फीसदी तक कम हो सकता है.
हमारे देश में एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस टीबी के मरीजों की तादाद ज्यादा है, लेकिन फिलहाल ऐसे पांच मरीजों में मात्र एक मरीज का ही प्रभावी दवाओं के सहारे उपचार हो रहा है. ऐसे में सरकार को अपनी पहल में मरीज के उपचार की सहूलियत के लिए कारगर दवाओं की कीमतें कम करने की दिशा में तुरंत उपाय करने चाहिए. साथ ही, इस रोग के बारे में जानकारी और जागरूकता का प्रसार भी जरूरी है.

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