भूत-प्रेत से लेकर चमत्कारों तक लोगों के बीच बहुत-सी मान्यताएं प्रचलित हैं. अपने व्यक्तिगत जीवन में ऐसी धारणाओं के अनुकूल लोग आचरण भी करते हैं. परंतु, किसी मान्यता के लोक में प्रचलित होने का अर्थ यह कतई नहीं है कि वह सत्य है और इसका प्रसार होना चाहिए. केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह के बयान में निहित बड़ा खतरा यही है.
अगर मनुष्य के क्रमिक विकास का चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत उन्हें गलत लगता है, तो उन्हें निजी तौर पर ऐसा मानने और कहने का हक है. लेकिन, एक मंत्री के रूप में डार्विन के सिद्धांत को वैज्ञानिक तौर पर गलत बताना और इससे आगे बढ़ते हुए यह प्रस्तावित करना कि गलती को सुधारने के लिए पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किये जाने चाहिए, निजी मान्यता को सार्वजनिक सत्य के रूप में स्थापित करने की मनमानी मानी जायेगी. यह मनमानापन ही तो है, जिसकी विधि-आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में मनाही है.
संघर्ष की एक लंबी अवधि में विज्ञान ने धर्म की कई मान्यताओं को गलत साबित किया है. धर्म की कुछ किताबें बताती थीं कि सृष्टि ईश्वर की रचना है और इस सृष्टि में ईश्वर की सबसे अनुपम कृति मनुष्य है. चूंकि ईश्वर सर्वशक्तिशाली और श्रेष्ठ है, इसलिए मनुष्य भी श्रेष्ठ है. इस नाते उसे दुनिया की तमाम सजीव-निर्जीव चीजों के प्रति अपनी मर्जी से व्यवहार का अधिकार है, यह विचार सदियों से जड़ जमाये चला आ रहा था. गैलीलियो से लेकर डार्विन तक की वैज्ञानिक खोजों के एक सिलसिले ने ऐसे विचारों को खारिज किया.
स्वयं को नैतिक रूप से श्रेष्ठ और इसी कारण नियंता समझने की मनुष्य की कोशिश को सबसे जोरदार झटका चार्ल्स डार्विन के अध्ययन से लगा था. उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि एककोशकीय प्राणियों से बहुकोशकीय जीवों के उत्पन्न होने का एक लंबा इतिहास है और इस कड़ी में मनुष्य वनमानुषों से कुछ ही बाद का विकास है.
इस खोज के बाद ईश्वर की कृति कहलानेवाले मनुष्य के सामने एकबारगी पशु-प्रजाति की संतति कहलाने की नौबत आन पड़ी. अहं को लगी यह चोट धर्मों के ठेकेदारों को कभी स्वीकार नहीं हुई और वे आज भी डार्विन के सिद्धांत को गलत बताने के लिए बेतुकी दलीलें देते हैं.
लेकिन, ऐसी दलील का शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर आसीन लोगों के मुंह से निकलना निराशाजनक है. बात अकेले एक केंद्रीय मंत्री की नहीं है. राजस्थान के शिक्षा मंत्री गाय की महिमा के बखान में बता चुके हैं कि वह सांस में ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है तथा गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भारत में न्यूटन से हजार बरस पहले खोज लिया गया था.
ऐसी बातें 19वीं सदी के उत्तरार्ध में सुनने को मिलती थीं. वह नव-जागरण का दौर था और भारत में मंथन चल रहा था कि पुरानी ज्ञान-राशि से क्या रखें, क्या छोड़ें? मंत्रियों के ऐसे बेमानी बयान कालचक्र को पीछे घुमाने की कोशिश होने के नाते अशोभन कहलायेगी.