अनुज कुमार सिन्हा
निर्मल महताे (प्यार से लाेग उन्हें निर्मल दा कहते थे) झारखंड आंदाेलन के प्रमुख नेता ताे थे ही, उससे बड़े वे सामाजिक नेता थे. 8 अगस्त, 1987 काे जिस समय उनकी हत्या हुई, उस समय वे झारखंड मुक्ति माेर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष (सर्वाेच्च पद) थे.
उम्र थी सिर्फ 37 साल (जन्मदिन 25 दिसंबर, 1950, स्थान उलियान, जमशेदपुर). निर्मल महताे 1980 में झारखंड मुक्ति माेर्चा से जुड़े. शैलेंद्र महताे ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की थी आैर शिबू साेरेन ने उनकी ताकत काे परख लिया था. उन दिनाें झारखंड मुक्ति माेर्चा काे एक सशक्त महताे नेता की तलाश थी. खुद शिबू साेरेन, निर्मल महताे से इतने प्रभावित हुए थे कि पार्टी से जुड़ने के तीन साल के भीतर ही उन्हें झामुमाे का केंद्रीय अध्यक्ष बना दिया था आैर खुद महासचिव बन गये थे. शिबू साेरेन उन्हें खूब मानते थे. निर्मल बाबू कह कर ही संबाेधित करते थे. पूरी आजादी दी थी.
तीन साल में ही निर्मल महताे ने झारखंड आंदाेलन काे मुकाम तक पहुंचाने के लिए बड़े फैसले किये थे. इनमें एक था अॉल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) का गठन करना. आजसू बनाने के पीछे निर्मल महताे का ही दिमाग था. वे जानते थे कि आनेवाले दिनाें में झारखंड आंदाेलन काे आैर तेज करने के लिए आक्रामक रुख अपनाना पड़ सकता है.
यह काम सिर्फ झामुमाे नहीं कर सकता. रणनीति यह थी कि राजनीतिक लड़ाई झामुमाे लड़ेगा आैर जब कुछ कड़े व अप्रिय कदम उठाने पड़े, यह काम आजसू के जिम्मे हाेगा. इसे निर्मल महताे की दूरदृष्टि माना जाता है. निर्मल दा ने आजसू काे झारखंड मुक्ति माेर्चा के छात्र संगठन के ताैर पर तैयार किया था आैर इसका नेतृत्व दाे तेज तर्रार युवा नेता प्रभाकर तिर्की व सूर्य सिंह बेसरा काे साैंपा था.
सिर्फ संगठन बनाकर निर्मल दा ने अाजसू काे छाेड़ नहीं दिया, बल्कि आजसू (दरअसल में इसे असम के छात्र संगठन अॉल असम छात्र यूनियन) काे धारदार बनाने के लिए युवा टीम काे दार्जीलिंग भेजा. बाेडाेलैंड आैर गाेरखालैंड के नेताआें से मिलने की व्यवस्था करायी. यह बताता है कि निर्मल दा झारखंड आंदाेलन पर कितने दूर की साेच रखते थे.
इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वे हिंसा में विश्वास करते थे. कड़ाई वे जरूर करते थे, लेकिन वहीं पर, जहां इसकी जरूरत हाे. उनके पुराने आैर सबसे करीबी साथी अाैर शहादत के वक्त घटनास्थल पर माैजूद निर्मल भट्टाचार्य यादाें काे ताजा करते हुए कहते हैं-निर्मल दा दर असल में एक सामाजिक नेता थे. वे खुद भी फुटबॉल खिलाड़ी थे आैर जमशेदपुर में टीम-क्लब भी चलाते थे. इस टीम के बच्चाें काे वे मैच खेलने के लिए जगह-जगह ले जाते थे. खर्च खुद उठाते थे. यही खिलाड़ी उनके साथ आंदाेलन में भी रहने लगे. दरअसल कॉलेज के दिनाें में वे छात्राें की राजनीति करते थे आैर मुहल्ले में शाेषकाें के खिलाफ कार्रवाई करते थे. झामुमाे अध्यक्ष बनने के पहले का उनका जीवन ज्यादा समाज सुधार से जुड़ा था. कॉलेज में पढ़नेवाली लड़कियां काे उन पर इतना भराेसा था कि जब भी मिनी बस में या रास्ते में काेई छेड़खानी की घटना घटती, वे पुलिस के पास नहीं जाती, बल्कि निर्मल महताे से शिकायत करती आैर निर्मल दा खुद इस मामले काे देखते. छेड़खानी करनेवालाें काे वे पीटते भी थे.
उन दिनाें जमशेदपुर में सूदखाेराें का आतंक था. टिस्काे में काम करनेवाले मजदूराें-स्वीपराें काे ये सूदखाेर फंसा कर कर्ज देते अाैर फिर वेतन मिलने के दिन उनका पैसा छीन लेते. निर्मल दा ने उन सूदखाेराें के खिलाफ लड़ाई लड़ी. सूदखाेराें में इतना आतंक बैठा कि उन्हाेंने धंधा बंद कर दिया. ऐसी ही घटनाआें से निर्मल महताे का कद बढ़ता गया. मुहल्ले आैर उसके आसपास कहीं शादी हाे, लाेग निर्मल महताे काे बुलाते. वे टीम के साथ जाते आैर हर संभव मदद करते थे. एक घटना घटी थी. एक ब्राह्मण के घर बंगाल से बारात आयी थी. लड़की के पिता ने दुल्हे काे साेने की चेन देने का वादा किया था. बारात आ गयी, चेन की मांग हुई.
लड़की के पिता किसी कारणवश चेन नहीं खरीद सके थे. बाराती अड़ गये. शादी टूटने के कगार पर पहुंच गयी. निर्मल दा काे खबर मिली. दाैड़े-दाैड़े गये. लड़की के पिता से कहा-शादी हाेगी ही. अपने गले से साेने की चेन निकाली (यह चेन निर्मल दा की मां ने उन्हें दिया था) आैर उस चेन काे लड़की के पिता काे साैंपते हुए कहा-इसे दुल्हे काे दे दीजिए. इसके बाद वे रात भर मड़वा में बैठे रहे. सामने शादी करायी. विदाई तक वहीं जमे रहे. इस प्रकार शादी टूटने से बच गयी. ऐसी घटनाआें से निर्मल दा के प्रति लाेगाें का जुड़ाव बढ़ता गया.
अगर सूदखाेराें के खिलाफ आंदाेलन चलाया ताे शराब बेचनेवालाें काे भी नहीं छाेड़ा. खुद कभी शराब नहीं पी. शराब बिक्री के खिलाफ भी निर्मल महताे ने आंदाेलन चलाया. सबसे ज्यादा चर्चा में वे आये 1982 में. तिरूलडीह पुलिस फायरिंग में मारे गये अजीत महताे आैर धनंजय महताे के शव काे लेकर काेई भी उनके गांव नहीं जा रहा था.
पुलिस का आतंक इतना था. खुद निर्मल महताे ट्रक से दाेनाें छात्राें के शव काे लेकर गये थे. झारखंड आंदाेलन से इतना जुड़ गये थे कि खुद शादी नहीं की. कहते थे-शादी कर लेंगे ताे आंदाेलन में समय कैसे देंगे. निर्मल दा काे एक-एक कार्यकर्ता की चिंता रहती थी. जाे सहयाेगी उनके साथ 24 घंटे रहते थे, उनका घर कैसे चलेगा, इसकी भी वे चिंता करते थे. यही कारण है कि उनके नेतृत्व में संगठन मजबूत हाेता गया.
वे इस बात काे मानते थे कि झारखंड आंदाेलन काे अगर मुकाम तक पहुंचाना है, ताे आदिवासी-मूलवासी के साथ-साथ अन्य लाेगाें की भी भागीदारी चाहिए. सभी काे साथ लेकर ही राज्य लिया जा सकता है. उनकी शहादत के 13 साल बाद झारखंड राज्य का गठन हुआ लेकिन इसे देखने के लिए वे माैजूद नहीं थे. झारखंड काे उनकी कमी खलती है.