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देश की अदालतों पर लंबित मामलों के निबटारे का भारी बोझ है और इसमें देरी की एक बड़ी वजह है- जजों का पर्याप्त संख्या में न होना. एक स्वतंत्र शोध संस्था ने अपने अध्ययन में कहा है कि जजों की नियुक्ति की अगर तीन चरणों वाली प्रक्रिया अपनायी जाती है, तो इसमें औसतन 326 दिन […]

देश की अदालतों पर लंबित मामलों के निबटारे का भारी बोझ है और इसमें देरी की एक बड़ी वजह है- जजों का पर्याप्त संख्या में न होना. एक स्वतंत्र शोध संस्था ने अपने अध्ययन में कहा है कि जजों की नियुक्ति की अगर तीन चरणों वाली प्रक्रिया अपनायी जाती है, तो इसमें औसतन 326 दिन लगते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यह अवधि 273 दिन की निर्धारित की है.

नियुक्ति के लिए दो चरणों की प्रक्रिया अपनाने पर 196 दिन लगते हैं, पर न्यायालय का मानक है कि पद विज्ञापित होने से लेकर पदस्थापन तक सारा कुछ 153 दिनों में हो जाना चाहिए. कई राज्यों में तो जजों की नियुक्ति में 450 दिन तक लग जाते हैं.

समस्याएं लंबे समय से चली आ रही हैं. समाधान के कुछ सचेत प्रयास हुए हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम आये हैं. सितंबर में खबर आयी थी कि हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, केरल और चंडीगढ़ की निचली अदालतों में 10 साल या इससे ज्यादा समय से लंबित तकरीबन सभी मुकदमों का निबटारा कर दिया गया है. दिल्ली, असम, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में भी ऐसे पुराने लगभग 99 फीसद लंबित मुकदमों का निबटारा हो गया है.

निश्चित ही यह एक बड़ी उपलब्धि है, पर निचली अदालतों पर भार इतना ज्यादा है कि इस कामयाबी पर बहुत खुश नहीं हुआ जा सकता है. निचली और अधीनस्थ अदालतों में तकरीबन ढाई करोड़ मुकदमे लंबित हैं. विधिक मामलों पर शोध की एक स्वतंत्र संस्था का आकलन है कि निचली अदालतों में जजों के 23 फीसदी पद खाली हैं. खाली पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए और नये पद सृजित किये जाने की बड़ी जरूरत है.

यह बात कई दफे उठायी जा चुकी है, लेकिन सरकारी स्तर पर एक तर्क यह दिया जाता है कि सभी राज्यों में निचली अदालतों में मुकदमों की तादाद और जजों की संख्या में अंतर एक समान नहीं है. विधि आयोग के एक अध्ययन में दावा किया गया कि कुछ राज्यों (मिसाल के लिए गुजरात, जहां प्रति 10 लाख आबादी पर जजों की संख्या 32 है) में जजों की संख्या बेहतर है, तो भी वहां लंबित मुकदमों का निबटारा ठीक से नहीं हो रहा है, जबकि कुछ राज्यों (जैसे कि तमिलनाडु, प्रति 10 लाख आबादी पर 14 जज) में जजों की तादाद बहुत कम है, लेकिन लंबित मामलों के निबटारे की दर वहां बेहतर है.

फिर भी विधि आयोग के इस आकलन के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि जजों की संख्या अनियत समय तक बढ़ाये बिना भी लंबित मुकदमों का निबटारा वांछित गति से किया जा सकता है. यह एक अफसोसनाक तथ्य है कि निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति देरी से हो रही है.

इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में विधि मंत्रालय के पत्र को जनहित याचिका बनाकर सुनवाई हो रही है. इसमें मंत्रालय ने अधीनस्थ जजों की नियुक्ति के लिए केंद्रीय आयोग बनाने का सुझाव दिया है. न्याय में देरी दरअसल न्याय से इनकार करने जैसा है और इस बड़ी नैतिक कसौटी को सामने रखकर जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया तेज करने की जरूरत है.

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