आज जब चुनावी जंग विकास के मुहावरे पर लड़ा जा रहा है तो यह प्रश्न फिर पूछा जाना चाहिए कि यह मुहावरा जिस दृष्टि की पैदाइश है, वह मौलिक है या उधार का है. लगातार आशंका जतायी जाती रही है कि भारतीय राजनीति के भीतर विकास का मुहावरा अमेरिका के व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में हावी हुआ है.
अमेरिकी विदेश विभाग में दक्षिण एवं मध्य एशियाई मामलों की उप-मंत्री निशा देसाई बिस्वाल का ताजा बयान एक बार फिर इस आशंका को पुष्ट करता है. उन्होंने अपने बयान में कहा है कि भारत में निवेश की नीतियां और कराधान का ढांचा पूंजी के प्रवाह को बढ़ाने वाला होना चाहिए क्योंकि पूरे दक्षिण एशिया में भारत ही विकास के इंजीन की तरह काम कर सकता है. ऐसे वक्त में जब देश में नई सरकार का गठन होने वाला है, उनके इस बयान को अमेरिका की तरफ से भारत को दी गयी सीख के रुप में देखा जाना चाहिए.
सीख यह कि भारत अर्थव्यवस्था के बचे-खुचे बंधनों को ढीला करते हुए जिस तेजी से वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ेगा, उसी तेजी से उसे विकसित होता हुआ या आर्थिक महाशक्ति बनता हुआ माना जाएगा. देसाई को अफसोस है कि भारत करोड़ों रुपये बुनियादी ढांचे के विकास-विस्तार पर तो खर्च कर रहा है, पर विदेशी निवेश की राह में अपनी नीतियों से रुकावटें खड़ी कर रहा है. अमेरिकी अफसोस और सीख का सीधा अर्थ यह है कि देश अपनी जमीनें कारपोरेट जगत को बहुत सस्ती दरों पर बेचने को तैयार रहे और उन जमीनों पर कारोबार के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों को टैक्स में मुंहमांगी छूट दे.
भारत के जिस राज्य में यह सर्वाधिक तेजी से हुआ है, उसे आज विकास का मॉडल स्टेट कहकर प्रचारित किया जा रहा है. ऐसी सिखावन से यह सवाल सिरे से गायब हो जाता है कि तीव्रतर आर्थिक-वृद्धि यानी शेयर मार्केट के उछाल भरे सालों में भारत में सामाजिक विकास के सूचकांक ठहराव के क्यों शिकार रहे. कहते हैं, उधार ली हुई चीज सूद समेत वापस करनी पड़ती है और अक्सर सूद चुकाने के चक्कर में अपने स्वत्व का कोई हिस्सा गिरवी भी रखना पड़ता है. यह अमेरिकी सीख कहां तक असर करती है, इसे भारतीय मतदाता को तय करना है.