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दूर तलक जाता यह फैसला
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक जब पूर्वी यूरोप में 1970 के दशक में कम्युनिस्ट दमन अपने चरम पर था और राज्य के नाम पर नागरिक स्वतंत्रताओं को पूरी तरह कुचल दिया गया था, तो पोलैंड के एक कवि ने निजता के अपने अधिकार के लिए एक मार्मिक अपील की. उसने ‘दुनिया के मजदूरों, […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
जब पूर्वी यूरोप में 1970 के दशक में कम्युनिस्ट दमन अपने चरम पर था और राज्य के नाम पर नागरिक स्वतंत्रताओं को पूरी तरह कुचल दिया गया था, तो पोलैंड के एक कवि ने निजता के अपने अधिकार के लिए एक मार्मिक अपील की. उसने ‘दुनिया के मजदूरों, तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के सिवा और कुछ नहीं है’ के तत्कालीन समवेत जाप की बजाय एक सरल-सा वाक्य लिखा, ‘दुनिया के मजदूरों, मुझे अकेला छोड़ दो!’
उन क्षेत्रों में निजता की उसी बुनियादी चाहत को, जिनमें अतिक्रमण का अधिकार राज्य अथवा गैर-राज्य निकायों को और उनसे भी आगे जाकर किसी को नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रख दिया.
विधिक पहलुओं के परे, इस फैसले में कोर्ट ने कई वृहत्तर तथा मूलभूत दार्शनिक प्रश्नों को भी संबोधित किया. अभी हम दो विरोधाभासी प्रवृत्तियां विकसित होती देखते हैं. पहली, प्रौद्योगिकी का ऐसा अभूतपूर्व विकास हुआ है कि उसमें व्यक्तियों के निजी जीवन में घुसपैठ करने की क्षमता आ गयी है. दूसरी, इसी के नतीजतन, व्यक्तियों में यह सुनिश्चित करने की एक इच्छा जगी है कि ऐसी प्रौद्योगिकियों के बावजूद, निजता के हमारे अधिकार की कोई भी काट-छांट न हो. क्या इन परस्पर विरोधी रुझानों में कोई तालमेल स्थापित किया जा सकता है और यदि हां, तो उसका स्वरूप कैसा होगा?
मैं नहीं समझता कि व्यक्तिगत निजता के संरक्षण के प्रति कोई कितना ही उत्साही क्यों न हो, वह अपने लाभ के लिए उस निजता के कुछ पहलुओं से विलगाव को अनिच्छुक भी हो सकता है. मसलन, यदि मैं किसी सरकारी कल्याण योजना का लाभुक हूं, तो यह सुनिश्चित करने हेतु कि वह लाभ मुझ तक पहुंचने की बजाय किसी और को न मिल जाये, मैं आधार जैसी किसी प्रणाली के साथ सहयोग करने से इनकार नहीं करूंगा. इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि उपर्युक्त उद्देश्य के लिए कार्य करते डिजिटल प्लेटफॉर्म वैध हैं.
जस्टिस चंद्रचूड़ के शब्दों में ‘यह सुनिश्चित करना राज्य की अहम जिम्मेदारी है कि दुर्लभ सार्वजनिक संसाधन किसी अपात्र के हाथों पड़ बरबाद न हों.’ दूसरी ओर, मेरे द्वारा स्वेच्छापूर्वक और स्वहित में दी गयी सूचनाएं यदि किसी राजकीय प्राधिकार द्वारा मेरी अवैध निगरानी जैसे किसी अनुचित उद्देश्य से इस्तेमाल की जाती हैं, तो उसके प्रति मेरी घोर आपत्ति भी होगी. वैसी स्थिति में निजता का मुद्दा और ऊपर उठ कर एक लोकतंत्र में असहमति के अधिकार के वृहत्तर सैद्धांतिक सवाल से जुड़ जाता है.
निजता के इस प्रश्न की चर्चा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक समाज के लिए अहम अन्य अनेक मुद्दों पर भी अपने मत व्यक्त किये जैसे, गोमांस निषेध, गर्भपात से संबद्ध अधिकार, यौन रुझान, ऐच्छिक मृत्यु और यहां तक कि-पोलैंड के उस कवि के शब्दों में-अकेला छोड़ दिये जाने का अधिकार. गोमांस निषेध पर जस्टिस चेलामेश्वर ने कहा, ‘मैं नहीं समझता कि कोई भी राज्य द्वारा यह बताया जाना पसंद करेगा कि उसे क्या खाना अथवा पहनना चाहिए.’
गर्भपात के विषय में कोर्ट का मत था, ‘एक महिला द्वारा एक बच्चे को जन्म देने अथवा अपना गर्भ गिरा देने का विकल्प चुनने की आजादी निजता के दायरे में आती है.’ यौन रुझान के प्रश्न पर कोर्ट की बेबाक राय कुछ यों रही, ‘यह कहना कि समलैंगिकों, उभयलैंगिकों और ट्रांसजेंडरों की तादाद देश की आबादी का सिर्फ एक अत्यंत छोटा हिस्सा है, उन्हें निजता के उनके अधिकार से वंचित करने का एक मान्य आधार नहीं है.’
स्पष्ट है कि निजता के प्रश्न पर फैसला देते हुए कोर्ट ने उससे बहुत सारे अन्य मुद्दों को संबद्ध कर दिया है, जो हमारे लोकतंत्र के ताने-बाने को मजबूती देगा. साथ ही यह कह कर उसने एक उचित संतुलन भी कायम किया कि स्पष्टतः परिभाषित किये जाने योग्य सार्वजनिक भलाई, खासकर गरीबों व वंचितों, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आपराधिक अन्वेषण हेतु सरकार ऐसे अधिकार पर समुचित पाबंदियों का प्रयोग भी कर सकेगी.
पर, अंततः अब नागरिक एक ऐसे अधिकार से लैस हैं कि वे अपनी निजता पर किसी अनावश्यक अतिक्रमण का मुकाबला कर सकें. यह एक बड़ी छलांग हैं. इंटरनेट तथा डेटा खनन के इस युग में डेटा एकत्र और इस्तेमाल करनेवाली निजी कंपनियों को सावधान हो जाने की जरूरत है.
सरकार को भी चाहिए कि वह एक सशक्त डेटा संरक्षण प्रणाली लागू करे. हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं, जब प्रौद्योगिकी ने हमें लाभुक तथा शिकार दोनों ही बना रखा है. यह श्रेय इस मीलस्तंभ फैसले को जाता है कि हमें इसने अब ऐसी स्थिति में ला दिया है कि हम दोनों में विभेद कर सकें और वैसा करने के अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर सकें.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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