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गरीब और अमीर के नाम

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार तीस सालों से विदेश में रहनेवाली मेरी मित्र ने देर रात फोन किया. हाल-चाल पूछने के बाद बताया कि उनकी नातिन हुई है और उसका नाम रखना है. आखिर तुमसे अच्छा नाम बता कौन सकता है. फिर वह नाम कैसा हो, उसने यह भी बतया. कहा कि नाम आसान हो. ऐसा […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
तीस सालों से विदेश में रहनेवाली मेरी मित्र ने देर रात फोन किया. हाल-चाल पूछने के बाद बताया कि उनकी नातिन हुई है और उसका नाम रखना है. आखिर तुमसे अच्छा नाम बता कौन सकता है. फिर वह नाम कैसा हो, उसने यह भी बतया. कहा कि नाम आसान हो. ऐसा हो जिसे कि विदेशी लोग भी आराम से उच्चारित कर सकें. साथ ही नाम यदि संस्कृत का हो, तो क्या कहने.
उनकी शर्तों के आधार पर कई नाम खोजे, मगर उन्हें कोई पसंद नहीं आया. कोई बड़ा था, किसी को बोलने में कठिनाई थी, किसी का मतलब समझ में नहीं आता था. और कोई संस्कृत जैसा लगता नहीं था. अंत में उन्होंने नाम रखा, श्रेयास्वी.
मैं सोचने लगी, जिसे बोलने में मुझे ही कठिनाई महसूस हो रही है, तब विदेशी इसे कैसे बोलेंगे. जबकि वह तो सरल नाम रखना चाहती थीं, उस शर्त का क्या हुआ. मगर जो नाम घर वालों को पसंद हो, वही अच्छा माना जाता है. और उस नाम को कोई बाहर वाला बदल भी नहीं सकता.
विदेशों में जो लोग रहते हैं, या जो लोग भारत में उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के हैं, उनमें आजकल संस्कृत के शुद्ध नाम रखने की होड़ लगी रहती है. हालांकि, यह भी सच है कि उनमें से बहुत कम लोग संस्कृत जानते हैं, या पढ़-लिख सकते हैं. बल्कि हो सकता है कि बहुतों ने किसी संस्कृत ग्रंथ की शक्ल भी न देखी हो.
दूसरी लगभग समान घटना मेरी घरेलू सहायिका के साथ हुई. पिछले साल उसकी बेटी की शादी हुई थी. इस साल उसके यहां भी बेटी ने जन्म लिया. जब मैंने उससे नाम के बारे में पूछा कि क्या नाम रखा है बेटी का? उसने जवाब में कहा- हैप्पी कुमारी. पहले से ही उसकी बेटी का नाम पिंकी और बेटे का नाम टिंकू है.
गरीबों में अंग्रेजी सीखने की जो ललक है, उनके बच्चों के नाम इसे अच्छी तरह से दिखाते हैं. अंग्रेजी मतलब ऐसी भाषा, जो ताकत की भाषा है. जिसे जानने से समाज में इज्जत बढ़ जाती है. आखिर ताकत की कीमत गरीब से ज्यादा अच्छी तरह से कौन समझ सकता है. इसीलिए पल-पल में उनके जीवन में अंग्रेजी का प्रयोग देखा जा सकता है.
राजस्थान में जब साल 2013 में चुनाव हुए थे, तो मशहूर पत्रकार शेखर गुप्ता ने वहां के गांवों-कस्बों से रिपोर्टिंग की थी. वहां जितने नौजवानों से उन्होंने बात की थी, उन सबने एक सुर में कहा था कि अगर वे भी औरों की तरह अच्छी अंग्रेजी जानते-बोलते, तो वे भी कहीं से कहीं पहुंच गये होते.अमीर हो या गरीब हो, जिस भाषा को हम नहीं जानते, उसकी तरफ ही भागते हैं. कोई संस्कृत की तरफ, तो कोई अंग्रेजी की तरफ.

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