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एक नयी कहानी गढ़ता बिहार

।।अजय सिंह।।(प्रबंध संपादक, गवर्नेस नाऊ)मैं शराब नहीं पीता, पर शराब और साकी के रूपक मुङो बरबस आकर्षित करते हैं. कविताओं और उर्दू गजलों में मीर, मिर्जा गालिब से लेकर दुष्यंत कुमार तक शराब और साकी का प्रयोग रूढ़ीवाद और पोगापंथ के खिलाफ बखूबी हुआ है. मिसाल के तौर पर मिर्जा गालिब ने वाईज (धर्मोपदेशक) को […]

।।अजय सिंह।।
(प्रबंध संपादक, गवर्नेस नाऊ)
मैं शराब नहीं पीता, पर शराब और साकी के रूपक मुङो बरबस आकर्षित करते हैं. कविताओं और उर्दू गजलों में मीर, मिर्जा गालिब से लेकर दुष्यंत कुमार तक शराब और साकी का प्रयोग रूढ़ीवाद और पोगापंथ के खिलाफ बखूबी हुआ है. मिसाल के तौर पर मिर्जा गालिब ने वाईज (धर्मोपदेशक) को छुप कर मयखाने में जाते देख कहा, ‘कहां मयखाने का दरवाजा गालिब और कहां वाईज.’ 1857 के गदर के बाद जब गालिब को दिल्ली की गलियों में अंगरेजों ने पकड़ा तो पूछा, ‘मुसलमान हो?’ गालिब ने कहा, ‘आधा हूं, पूरा नहीं, क्योंकि शराब पीता हूं.’ जवाब सुन कर अंगरेज ने उन्हें हंसते हुए छोड़ दिया. गालिब की शायरी में शराब का प्रयोग रूढ़िवादिता को चुनौती देने के लिए हुआ है, न कि शराब पीने को गौरवान्वित करने के लिए.

1960 और 70 के दशक में इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की अद्भुत कृति ‘मधुशाला’ आयी. हिंदी प्रेमियों और युवा वर्ग में मधुशाला का क्रेज था. कहा जाता है कि बच्चन जी को कोर्ट में यह कह कर घसीटा गया कि उनकी कविता शराब पीने के लिए प्रोत्साहित करती है. बाद में कोर्ट ने इस दलील को नकार दिया. दरअसल मधुशाला का सरोकार मानव जीवन के उस यथार्थ से है, जहां रूढ़िवादिता, अंधविश्वास और घृणा का स्थान नहीं है. ‘बैर बढ़ाते मसजिद मंदिर, मेल कराती मधुशाला’ जैसी पंक्ति जाहिर तौर पर सांप्रदायिकता का खुला उपहास है. वहीं दूसरी ओर जीवन के यथार्थ को कुछ इस तरह बताया, ‘भाग्य प्रबल मानव निर्बल का पाठ पढ़ाती मधुशाला.’ शायरों और कवियों की इन कल्पनाओं में जीवन के कई बिंब उजागर होते हैं.

पर हाल के अपने बिहार दौरे पर हमने मधुशाला का एक विकृत रूप देखा. बरौनी के एक निजी अस्पताल में डॉ हेमंत ने एक मरीज को देख कर पूछा, नशा करते हो? मरीज तो कुछ हां और न में जवाब देकर निकलना चाहा, पर तभी उसकी पत्नी ने कहा, खूब पीते हैं. क्या पीते हो? जवाब मिला, ‘रंथी एक्सप्रेस’. बेगूसराय में रंथी द्योतक है मृत्युशैय्या का. रंथी एक्सप्रेस एक देशी शराब की भट्टी का ब्रांड है. 30 रुपये का एक पाउच मिलता है. मरीज लगभग चार-पांच पाउच रोज पीता है. उत्सुकतावश मैंने पूछा इस शराब को ‘रंथी एक्सप्रेस’ क्यों कहते हैं. जवाब हैरानीवाला था. इसमें इतना नशा होता है कि पीते ही पीनेवाला दूसरे लोक में होता है. बरौनी के रेलवे गुमटी के पास हमने इसकी एक बानगी देखी. रंथी एक्सप्रेस पी रहा एक समूह दुनिया से बेखबर एक अजीब-सी मदहोशी में था. न परिवार व समाज का भय और न ही अपने दायित्वों की चिंता. ज्यादातर लोगों के चेहरे पर एक अजीब सी बेबसी और लाचारी थी. सही रूप से यह तबका ‘रंथी संस्कृति’ का वाहक है जो दम तोड़ रहा है.

दरअसल, इसकी नींव पड़ी 1990 के दशक में. 1992-93 में राजनीतिक माहौल कुछ इस तरह का था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री खुले तौर पर प्रचार करते थे कि, ‘एक लबनी पियो और मस्त रहो.’ उन दिनों उनका यह राजनीतिक मुहावरा उनके जमीनी नेता होने का नमूना माना जाता था. पर राजनीतिक तौर पर शराब और ताड़ी को मस्ती से जोड़ने का परिणाम था बिहार में एक अपसंस्कृति का जन्म. जाहिर है दशकों से फलती-फूलती यह ‘रंथी संस्कृति’ दम तोड़ने में वक्त तो लेगी.

पर इसमें कोई शक नहीं कि नये बिहार में इन विकृतियों का मरना तय है. क्या यह दिलचस्प नहीं है कि इन सबके बीच बिहार शहद उत्पादन में पहले स्थान पर है. शहद उत्पादन के नये-नये प्रयोग राज्य में किये जा रहे हैं. नालंदा क्षेत्र में मशरूम की खेती और जैविक खाद के जरिये सीमांत किसान भी अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर रहे हैं. सीवान, छपरा में कई उद्यमी बाहर से लौट कर अपने प्रदेश में मत्स्य पालन व पशुपालन क्षेत्र में नये प्रयोग कर रहे हैं. लोगों में अच्छी शिक्षा की चाहत है. बिजली की मांग बढ़ गयी है. सड़क निर्माण होने के बावजूद इससे और अच्छी सड़क, बाइपास और पुल की चाहत है. इंफ्रास्ट्रक्चर अगर अच्छा हो जाये तो बिहार में क्या नहीं हो सकता. लगभग यही भाव आम उद्यमशील बिहारी में दिखाई देता है. 90 के दशक के बिहार और आज के बिहार में जमीन-आसमान का फर्क है. सामाजिक कटुता और नफरत से हट कर जनमानस में विकास का नशा-सा दिखता है. सरकार से अगर शिकायत है तो अपेक्षा के अनुरूप खरा न उतरने की. यह शिकायत वाजिब हो सकती है, पर इसमें संदेह नहीं कि बिहार बदल गया है.

दिलचस्प यह है कि बिहार का यह बदलाव भौतिकता से हट कर सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरातल पर भी है. इस बात का एहसास मुङो इस बार मुंगेर स्थित बिहार स्कूल ऑफ योगा के भ्रमण में हुआ. गंगा के तट पर बसा यह संस्थान बिहार की पुरातन सभ्यता और आधुनिकता का एक अद्भुत संगम है. संस्थान की इमारतें आधुनिक डिजाइन से तैयार की गयी हैं. यह दुनिया का पहला संस्थान है, जहां योग-गुरुओं को तैयार किया जाता है. 23 से 24 अक्तूबर तक इस संस्थान की स्वर्ण जयंती का कार्यक्रम तय हुआ है. बातचीत में स्वामी निरंजनानंद ने बताया कि यह संस्थान योग को जीवनशैली में उतारने के लिए प्रयासरत है. योग से तात्पर्य है कि अपने कर्म और जीवन में पूर्ण सजगता रखना. इस सम्मेलन में देश-विदेश से लाखों लोगों के आने की संभावना है. जाहिर है मुंगेर की ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस योग संस्थान के सकारात्मक योगदान से होगी. मकसद होगा, योग के जरिये जीवन को कैसे बेहतर बनाया जाये. दिलचस्प यह है कि योग किसी धार्मिक संकीर्णता से बंधा नहीं है. यह एक उत्कृष्ट जीवनशैली का पर्याय है. मुंगेर के योग स्कूल में यह प्रयास निरंतर जारी है.

क्या यह बदलाव नहीं है? 90 के दशक में मुंगेर बदनाम था अवैध असलहों के कारखाने के लिए. कहा जाता था कि मुंगेर के कारीगर इतने उस्ताद हैं कि एके 47 और लाइट मशीनगन भी बना लेते हैं. वहां इस तरह के कई अवैध कारखाने चल रहे थे. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के माफिया गुटों को असलहा आपूर्ति का गढ़ था मुंगेर. हालांकि आज भी ऐसी गतिविधियां पूरी तरह समाप्त नहीं हुई होंगी, लेकिन आज इसकी उतनी चर्चा नहीं होती है. वजह साफ है, मुंगेर आज 1990 की राजनीतिक अपसंस्कृति से निकल कर एक नयी कहानी गढ़ रहा है. एक सुनहरे भविष्य की कहानी.

रेणु, दिनकर और नागाजरुन के बिहार में शराब और साकी के रूपक से किसी को ऐतराज नहीं हो सकता. डर लगता है रंथी एक्सप्रेस की अपसंस्कृति से. इस अपसंस्कृति ने प्रदेश की राजनीति को प्रभावित किया है. अब सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जागरूकता ही इसको अधोगति तक पहुंचा सकती है.

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