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संगठित करना सीखे कांग्रेस

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया जिस तेजी से भाजपा एक के बाद एक राज्यों में अपनी पकड़ बनाती जा रही है, कांग्रेस डरी हुई और बेचैन दिख रही है. बिहार की सत्ता महागठबंधन के हाथ से निकल गयी, बावजूद इसके कि कांग्रेस को नीतीश कुमार के इस गठबंधन से बाहर आने की पहले […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
जिस तेजी से भाजपा एक के बाद एक राज्यों में अपनी पकड़ बनाती जा रही है, कांग्रेस डरी हुई और बेचैन दिख रही है. बिहार की सत्ता महागठबंधन के हाथ से निकल गयी, बावजूद इसके कि कांग्रेस को नीतीश कुमार के इस गठबंधन से बाहर आने की पहले से ही जानकारी थी, जैसा कि राहुल गांधी कह रहे हैं. अगर वे इस बात को जानते थे, तो असहाय क्यों थे? इसे समझना मुश्किल है. गोवा में भी ऐसा ही हुआ था और वहां चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने और ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस ने इंतजार किया था. और भाजपा जैसी प्रतिभा-संपन्न, ऊर्जावान और सत्ता के लिए प्रयासरत पार्टी का सामना करते हुए ऐसे इंतजार करना एक घातक भूल थी.
गुजरात में शंकर सिंह वाघेला के पार्टी से बाहर आने के बाद दूसरे दौर की हलचल शुरू हो गयी है और छह कांग्रेस विधायकों के पार्टी छोड़ देने से अहमद पटेल का राज्यसभा चुनाव खतरे में पड़ गया है. इस घटना के प्रतिक्रियास्वरूप कांग्रेस ने अपने सभी विधायकों को संदेह के घेरे में रखा है और उन्हें अपने नियंत्रण वाले कुछ राज्यों में से एक कर्नाटक भेज दिया है. खुद गुजरातियों का मानना है कि गुजरात में भाजपा ने सचमुच बुरा प्रदर्शन किया है. ऐसे में जो हो रहा है, अचरज की बात है. अपनी लोकप्रियता कम होने के कारण यहां भाजपा को चिंतित होना चाहिए.
पिछले कुछ वर्षों में गुजरात में हुए प्रमुख आंदोलनों के तहत लाखों लोग संगठित हुए हैं.हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण को लेकर पाटीदार आंदोलन, इसके विरोध में अल्पेश ठाकुर के नेतृत्व में अन्य पिछड़ा वर्ग का क्षेत्रीय आंदोलन, ऊना घटना के बाद जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में दलितों का विद्रोह, विमुद्रीकरण के बाद हीरा व्यापारी और कपड़ा कामगारों की परेशानी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लगाने के बाद सूरत में लाखों व्यापारियों की रैली आदि प्रमुख आंदोलन हैं. हालांकि ये सभी मुद्दे भाजपा की नीतियों का सीधा परिणाम थे और सभी आंदोलन कांग्रेस नेतृत्व के बिना संचालित किये गये थे. इन आंदोलनों का नेतृत्व ऊपर उल्लिखित तीन नये युवा नेताओं ने किया या फिर वे बिना किसी नेता के आंदोलन रहे हैं. इस बात से यह साबित होता है कि राजनीतिक मुद्दों पर लोगों को कैसे संगठित करना है, इसे कांग्रेस भूल चुकी है. यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि बारदोली सत्याग्रह जैसे गांधी के कुछ बेहद सफल आंदोलन, गुजरात में ही हुए थे.
कांग्रेस पार्टी को गुजरात में लगातार 30 प्रतिशत से अधिक मत मिलते रहे हैं. हालांकि, वह उन अतिरिक्त तीन या चार प्रतिशत मत को प्राप्त नहीं कर सकती है, जो हार या जीत के बीच का अंतर तय करते हैं.
और अगर वह किसी एक मुद्दे पर लोगों को संगठित कर उसका लाभ उठाने में सक्षम होती है, तभी ऐसा हो सकता है. इन सभी आंदालनों के बावजूद लोगों को संगठित करने में कांग्रेस की अक्षमता के कारण ही गुजरात भाजपा सहज स्थिति में है. भाजपा को अजेय माना जाता है, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में कोई भी पार्टी अजेय नहीं हो सकती है. कर्नाटक में, भाजपा वस्तुत: रक्षात्मक मुद्रा में है. चालाक कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हिंदुत्व पार्टी को व्यस्त रखने लिए भारतीय शैली के राजनीतिक दांव का इस्तेमाल किया है.
इसके तहत वे बेंगलुरु में हिंदी के खिलाफ आंदोलन का इस्तेमाल कर रहे हैं, यह एक ऐसा मुद्दा है जहां भाजपा कमजोर है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदी को वरीयता देता है. इस मुद्दे पर स्थानीय भाजपा को चुप रहना होगा या नुकसान उठाना होगा.
दूसरा मुद्दा लिंगायत समुदाय की आंतरिक मांग से जुड़ा है कि उसे हिंदुत्व से बाहर एक पृथक धर्म की मान्यता दी जाये. अगर लिंगायत ऐसा चाहते हैं तो सिद्धारमैया ने उनकी आस्था को पृथक करने संबंधी सिफारिश केंद्र के पास भेजने की पेशकश की है. देखने में सरल लगनेवाले इस प्रस्ताव ने मुश्किल पैदा कर दी है. भाजपा की समस्या यह है कि यह समुदाय पुरजोर तरीके से भाजपा का समर्थन करती है (पार्टी के नेता बीएस येदुरप्पा खुद एक लिंगायत हैं), लेकिन भाजपा-आरएसएस लिंगायत को अलग मान्यता नहीं देगी. इस मुद्दे पर एक बार फिर भाजपा को शांत रहना होगा या नुकसान उठाना होगा.
कर्नाटक के लिए अलग झंडे जैसे उप-राष्ट्रवाद (सबनेशनलिज्म) जैसे मुद्दे पर ध्यान केंद्रित कर सिद्धारमैया ने भाजपा के राष्ट्रवाद को कमजाेर कर दिया है. इन सभी घटनाओं से पता चलता है कि कांग्रेस और दूसरे दल भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौती उत्पन्न कर सकते हैं.
यहां सवाल यह है कि मुश्किल की घड़ी में भारत के राजनीतिक दल किस तरह अपने समर्थकों को संगठित कर सकते हैं? इस संबंध में कांग्रेस पार्टी भारत की एक बड़ी राजनेता से सबक ले सकती है. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने यह कहकर कि उन्हें बोलने नहीं दिया जाता था, राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया है. उनका यह गुस्सा वास्तविक है या नहीं, लेकिन इतना तय है कि यह सोच-समझ कर उठाया गया कदम है. इसका मतलब यह होगा कि वह जमीनी स्तर पर जायेंगी और अपने खोये हुए जनाधार को अपने साथ वापस लाने की कोशिश करेंगी.
जो लोग स्थानीय राजनीति पर नजर रखते हैं, उनके अनुसार भाजपा एकजुट दलित पहचान को जाति और उप-जाति में बांटने में सफल रही थी और उसने उन जातियों पर ध्यान दिया था, जिन्हें मायावती ने नजरअंदाज किया था.
उनकी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में लगभग 20 से 25 प्रतिशत मत प्राप्त करती रही है. जब तक सभी दल इस बहुकोणीय मुकाबले में थे, उनके जीतने के पर्याप्त अवसर होते थे. लेकिन, जातीय गठबंधन बनाने की अमित शाह की शानदार क्षमता ने भाजपा को प्रचंड समर्थन दिया है, जिसका मुकाबला न तो समाजवादी पार्टी (जो 29 प्रतिशत मत पर अटकी रही है) कर सकती है, न ही बसपा.
इस स्थिति में बदलाव लाने का एक ही तरीका है, लोगों को संगठित करना. मायावती इसे जानती हैं. डर और बेचैनी के मौजूदा दौर के बीत जाने के बाद कांग्रेस को गहरी सांस लेनी चाहिए और यह सोचना चाहिए कि लोगों को संगठित कैसे करना है?

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