रशीद िकदवई
राजनीतिक टिप्पणीकार
दार्जीलिंग की सड़कों पर अंगरेजी और नेपाली में लगाये जा रहे हैं- ‘वी वांट गोरखालैंड. गोरखालैंड-गोरखालैंड. गोरखालैंड चाहिन छ. चाहिन छ-चाहिन छ. हामरौ मांग गोरखालैंड.’ इन्हीं नारों के बीच पश्चिम बंगाल इन दिनों गोरखालैंड की आग में जल रहा है. दरअसल, इस हिंसा और आगजनी के पीछे भाषाई राज्य की कल्पना है जिसने एक आंदोलन का रूप ले लिया है.
पिछले सौ वर्षों से जारी गोरखालैंड की मांग को खुद पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार की उस घोषणा ने हवा दे दी, जिसके तहत नौवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए बांग्ला भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने की बात कही गयी है. इससे नाराज लोगों ने बंगाल सरकार की आठ जून को हुई कैबिनेट मीटिंग के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को काले झंडे दिखाये थे.
स्तंभकार, मेरे मित्र और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सलाहकार स्वराज थापा कहते हैं कि यह अस्मिता की लड़ाई है. वजूद बचाने का संघर्ष है. लिहाजा, लोग पेट की चिंता किये बगैर आंदोलन को धार दे रहे हैं. उन्होंने कहा कि यह मांग 100 साल से भी अधिक पुरानी है. लेकिन, इस बार पहाड़ के लोग अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं. यह लड़ाई बिना गोरखालैंड लिये खत्म नहीं होनेवाली है.
वर्ष 1947 में आजादी मिलते ही भारत के सामने 562 देशी रियासतों के एकीकरण व पुनर्गठन का सवाल मुंह बाये खड़ा था. इसी साल श्याम कृष्ण दर आयोग का गठन हुआ. आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था. उसका मुख्य जोर प्रशासनिक सुविधाओं को आधार बनाने पर था, लेकिन तत्कालीन जनाकाक्षाओं को देखते हुए उसी वर्ष जेबीपी आयोग (जवाहर लाल नेहरू, बल्लभभाई पटेल, पट्टाभि सीतारमैया) का गठन किया गया. इसके फलस्वरूप सबसे पहले 1953 में आंध्र प्रदेश का तेलुगुभाषी राज्य के तौर पर गठन हुआ. उसके बाद 22 दिसंबर, 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ.
न्यायमूर्ति फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर इसके तीन सदस्य थे. इस आयोग ने 30 सितंबर, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी. आयोग ने राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक और वित्तीय व्यवहार्यता, आर्थिक विकास, अल्पसंख्यक हितों की रक्षा तथा भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया. सरकार ने इसकी संस्तुतियों को कुछ सुधार के साथ मंजूर कर लिया. जिसके बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम संसद से पास हुआ.
दार्जीलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में जारी हिंसा व आंदोलन की वजह से हालात बिगड़ते जा रहे हैं. इससे इलाके में अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे पर्यटन और चाय उद्योग को भारी नुकसान पहुंचा है. ऐसे मौके पर प्रधानमंत्री मोदी को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए. क्योंकि गोरखालैंड के साथ ही विदर्भ, बुलंदेलखंड और उत्तर प्रदेश से पश्चिम प्रदेश, अवध और पूर्वांचल, इन तीन राज्यों की मांग उठ रही है. यही वह मौका है, जब भाजपा की मोदी सरकार को राज्य पुनर्गठन को लेकर अपने कदम बढ़ाने चाहिए, जिससे देश का समुचित विकास के साथ ही बुनियादी ढांचे का विकास हो तथा क्षेत्रीय भावनाओं को साकारात्मक दिशा और गति मिल सके.
उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की तरह तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग के आंदोलन की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है. छोटे राज्यों की अवधारणा के साथ सत्ता का विकेंद्रीकरण जुड़ा हुआ है. नेहरू सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे.
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी दूसरा राज्य पुनर्गठन आयोग पर विचार किया गया था. एक तरफ तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली उसके पक्षधर थे, लेकिन वित मंत्री प्रणव मुखर्जी की हठधर्मी के सामने मनमोहन सिंह बेबस हो गये और यूपीए ने एक सुनहरा अवसर गंवा दिया .
भाजपा हमेशा से ही छोटे राज्यों के पक्ष में रही है और उसी के कार्यकाल में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्य बने. यही कारण है कि दिल्ली की सत्ता में आने के बाद से छोटे राज्यों के गठन को लेकर एक बार फिर मांग उठने लगी है.
राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना का कोई भी कदम, जो नये राज्यों की मांगों पर विचार करेगा, भानुमती का पीटारा खोल सकता है, क्योंकि कुछ एनडीए घटक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बंगाल जैसे बड़े राज्यों के विभाजन के विचार के विरोध में हैं.
देश की बढ़ती जनसंख्या; क्षेत्रीय भवनाओं और राजनीतिक भागीदारी को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब समय आ गया है कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए फिर से एक आयोग का गठन किया जाये. पुनर्गठन का आधार विकास का मुद्दा होना चाहिए, साथ ही संस्कृति, परंपरा, भाषा आदि भी राज्य पुनर्गठन के आधार हो सकते हैं, जिसे पहले नजरंदाज करने की कोशिश की जाती रही है. अब यह जरूरी हो गया है कि सरकार इस विचार को सिद्धांत एवं नीति के रूप में स्वीकार कर ले.